ढल गया सूरज जब पश्चिम में,
लहराई कालिमा की चादर,
स्वप्निल विस्तार में लिपटी,
आई काली घनेरी रात।
थकी हड्डियाँ, विस्मृत स्वप्न,
छोड़ गए दिवस के छाले,
सोने का वादा करती,
दुलारती हर पल वह रात।
सन्नाटे की साथी, चुपचाप,
बहाने लगती प्रीत की रेशम,
अम्बर पर टिमटिम तारों की,
पोशाक पहने, खिली वह रात।
दिन ढोता रहा जीवन भर का,
अनकहा बोझ उम्र का,
उम्मीदों की चादर तान,
सुकून बाँटती आलिंगन रात।
नयनों से छलका जब दुख,
पीर का समंदर छलकाया,
ले आशा के दीप संग,
हर लेती दुःख की वह रात।
सारा जग जब नींद में खोया,
भूले सभी जग की माया,
जागती रही वह अकेली,
सबकी पहरेदार बनी रात।