गर्मी की धूप में जब थक कर चूर हो जाऊं
तब ठंडी हवा का एहसास बनकर चले आना
रेगिस्तान में जब भटक कर खो जाऊं
तब भटके हुए की आस बनकर चले आना
सर्दियों की शाम में जब ठंड से ठिठुर जाऊं
तब अलाव की तपिश बनके चले आना
ऊंचे नीले आसमान में जब कटी पतंग बन जाऊं
तब मांझे की डोर बनकर चले आना
जो कभी खुद से रूठ कर रो पडूं
तब मेरे लबों पे हँसी बनकर चले आना
जो अगर तलाशते हुए वजह न मिले
तब यूँ बेवजह ही चले आना