धरती का हरित श्रृंगार

हरियाली दिखती नही
सूख रहे सब फूल।
क्यूं बेशर्मी से हंस रहे
आंखो पर डाले धूल।
-करो धरती का हरित श्रृंगार

सब धुंआ धुंआ सा कर बैठे
पशु-पंछी ढूंढे आवास।
हरियाली यूं रुठ चली
ले जंगल से सन्यास।
-करो धरती का हरित श्रृंगार

कभी हरे भरे इस गांव मे
होती थी पीपल की छांव।
जल रहा हर पांव पांव
अब पत्थर हो गये गांव।
-करो धरती का हरित श्रृंगार

चहक महक सब छोड चले
संग हरियाली और गुल।
सजा रहे हम महलों को
लाकर कागज के फूल।
-करो धरती का हरित श्रृंगार

न तुम अंधे न हम अंधे
फिर अंधा कौन इंसान
क्यूं ठंड रहे इस आंगन मे
जब घर बना रेगिस्तान।
-करो धरती का हरित श्रृंगार


तारीख: 15.10.2017                                    सुनिल दुबे "भगवा"









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है