दिया बुझने की, फिराक़ में बैठा था
तीरगी छुप के, चिराग तले बैठा था
इश्क़ के सौदे में, उसे मुनाफ़ा हुआ
मेरा जिस्म लिए, बाज़ार में बैठा था
एक क़तरे ने लबो, की प्यास बुझा दी
मैं तिश्नगी का, अंबार लिए बैठा था
जोड़ा घटाया, ज़िन्दगी भर की कमाई
सिवाए जख्म, सब उधार लिए बैठा था
जात से बाहर इश्क़ किया, ये मुद्दा था
सभा मे राज़दार, तलवार लिए बैठा था
खुद को आज़ादी का, मसीहा कहता था
पिजड़े में परिंदों को, कैद किये बैठा था