तथागत,
तुम तो चल गए ,
रिश्तों का मोह त्याग कर,
हर दुख की आँच ताप कर,
जीवन की जटिलता माप कर,
अँधेरों की गहनता भांप कर,
गैरों को रौशनी बांट कर,
दुनियावी किस्से बांच कर !
लेकिन न जाने क्यों,
मुझसे न हो पाएगा !
मेरे भीतर का बुद्ध
अभी न जाग पाएगा !
रिश्तों से मोह बना हुआ है,
सुखों का स्वागत शुरू हुआ है,
जीवन पहेली सुलझ रही हैं,
सपनों की दुनिया सज रही है,
फसाने लबों पर आने लगे हैं,
गिले-शिकवे सब ठिकाने लगे हैं,
ये सब सच बनाने में जमाने लगे हैं !
अब हम भी खुद को आजमाने लगे हैं !
बस,
हो सके तो मुझे माफ कर देना,
तथागत,
जहां हो वहीं से
मेरे जीवन का भी हिसाब कर देना!
क्योंकि मुझसे अभी न हो पाएगा,
मेरे भीतर का बुद्ध अभी न जाग पाएगा !