एक परिंदा हूँ

वो जहाँ
जहां सब अपने थे मेरे
खो गया छण भर में जाने कहाँ
ढूंढ रहा मै वो कारवाँ
जहां कभी थे मेरे नामों निशाँ
मै बादलों में भटका
मै नीर को तरसा,
और गिरती बुँदे देखता हूँ
मै खुद की तालाश में भटका
खोया एक परिंदा हूँ।

वो हवा
जिसने मुझे उड़ना सीखाया
गोद में अपनी मुझे सुलाया
जिसमे ली मैंने अंगड़ाई
जिसने तराशी मेरी परछाई
उसी ने आज तूफ़ान उठाया है,
मै अपने घर को
उससे लगे जड़ को
एकटक.. उखड़ता देखता हूँ
मै झूठी ममता से भरमाया,
सहमा एक परिंदा हूँ।

वो पंख
जो कभी शान थे मेरे
जिनपर कभी था मेरा हम
जिन्हें देख भरता था दम
सब टूट गये इक इक करके,
मै वक़्त के थपेड़ो से हारा
मै कल की आस में बेसहारा,
मै सदियों से कुचला गया हूँ,
और आज अपना अहम् बिखरते देखता हूँ
मै चंद बची साँसों को गिनता
घुटता एक परिंदा हूँ ।


तारीख: 23.06.2017                                    अंकित मिश्रा









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