हाइकु 

नहीं लौटता 
उन्हीं लकीरों पर 
समय-रथ.

कोसते रहे 
समूची सभ्यता को 
बेचारे भ्रूण.

हरे पेड़ों से 
लोग करने लगे
काली कमाई.

नहीं टूटते 
अपनत्व के तार
आखिर यूँ ही.

प्रेम देकर 
उसने पिला दिये
अमृत-घूंट.

करती रही
गरीब की कुटिया
कई सवाल.

हर तरफ
महत्वाकांक्षा ने ही 
घोला जहर.


तारीख: 25.04.2020                                    त्रिलोक सिंह ठकुरेला









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