नहीं लौटता
उन्हीं लकीरों पर
समय-रथ.
कोसते रहे
समूची सभ्यता को
बेचारे भ्रूण.
हरे पेड़ों से
लोग करने लगे
काली कमाई.
नहीं टूटते
अपनत्व के तार
आखिर यूँ ही.
प्रेम देकर
उसने पिला दिये
अमृत-घूंट.
करती रही
गरीब की कुटिया
कई सवाल.
हर तरफ
महत्वाकांक्षा ने ही
घोला जहर.