हम दिहाड़ी मजदूर कहाते

कर श्रम घर का बोझ उठाते
हैं जब रोज कमाते तब खाते
बेबस लाचारी में ही जीवन गवांते
ना खुद पढ़े खूब ना बच्चे पढ़ा पाते
हम दिहाड़ी मजदूर कहाते

ना सपने आंखों पर अपने सज पाते
बन आंसू पलकों से वो गिर जाते
लक्ष्मी सरस्वती भी हमसे नजर चुराते
मना मंदिरों से उन्हें ना घर ला पाते
हम दिहाड़ी मजदूर कहाते

सींच मिट्टी नई कलियां उगाते
अन्न फल फूल उपवन में सजाते
हर निर्माण की भार उठाते
सड़क पुल बांध और नहर बनाते
हम दिहाड़ी मजदूर कहाते

बन पहिया विकास की गति बढ़ाते
हम जो रुकते तो देश भी थम जाते
योजनाएं सरकारी हमें कम ही मिल पाते
कुछ दुराचारी हमसे हमारी हक चुराते
सच ये बात अपनी हम सबको सुनाते
हम दिहाड़ी मजदूर कहाते ।


तारीख: 10.04.2024                                    शशि कांत सिंह









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