कफन

सीने   में  जल रहे है  ,
अगन  दफ़न  दफ़न से ,
बुझे   हैं  ना   कफ़न  से ,
अलात आदमी   के?

ईमां   नहीं   है जग   पे  ,
ना खुद पे  है  भरोसा,
रुके  कहाँ   रुके  हैं  ,
सवालात   आदमी  के?

दिन   में   हैं    बेचैनी  और ,
रातों को  उलझन,
संभले    नहीं     संभलते   ,
हयात  आदमी के।

दो   गज    जमीं      तक   के ,
छोड़े ना अवसर,
ख्वाहिशें    बहुत     हैं  ,
दिन  रात  आदमी  के।

चिराग   टिमटिमा   रहा है   ,
आग आफताब पे,
ये  वक्त   की  बिसात पर ,
औकात  आदमी के।

खुदा   भी   इससे  हारा  ,
इसे चाहिए जग सारा,
अजीब   सी  है फितरत  ,
खयालात आदमी के।


तारीख: 12.02.2024                                    अजय अमिताभ सुमन









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