सीने में जल रहे है ,
अगन दफ़न दफ़न से ,
बुझे हैं ना कफ़न से ,
अलात आदमी के?
ईमां नहीं है जग पे ,
ना खुद पे है भरोसा,
रुके कहाँ रुके हैं ,
सवालात आदमी के?
दिन में हैं बेचैनी और ,
रातों को उलझन,
संभले नहीं संभलते ,
हयात आदमी के।
दो गज जमीं तक के ,
छोड़े ना अवसर,
ख्वाहिशें बहुत हैं ,
दिन रात आदमी के।
चिराग टिमटिमा रहा है ,
आग आफताब पे,
ये वक्त की बिसात पर ,
औकात आदमी के।
खुदा भी इससे हारा ,
इसे चाहिए जग सारा,
अजीब सी है फितरत ,
खयालात आदमी के।