यह रचना उन जवानों की याद दिलाती है जो किसी महायुद्ध में अपने वतन को खोकर किसी और वतन में सालों से बंदी हैं।अगर उन में से कोई अगर खत लिखता तो वह कुछ इस तरह लिखता।
गीली गंदली सी ज़मीन सोखे ,
मटमैले यह कपड़े मेरे ,
थोड़ा रो के थोड़ा पी के आंसू ,
अपनी मुस्कान को मैं ख़त लिखता हूँ,
जब होठ सुर्ख पड़ जाते हैं,
और गला दर्द कर उठता है,
लगता है इक दिन बीत गया,
अब उठने को जी करता है,
इन काली दीवारों से कुछ नहीं पता लगता है,
जा के दरवाज़े पे करता हूँ खट-खट,
तो कोई चेहरा रोटी डाल जाता है,
रूखी-सूखी होके दुःखी ,
मैं दो निवाले खाता हूँ,
जो खा रहे हो माँ के हाथ का खाना,
तुम खुशनसीबों के नाम,
मैं यह ख़त लिखता हूँ ||
कालेपन में बीत गयी,
सदियाँ कितनी याद नहीं,
उम्र मैं क्या याद करूँ,
जब याद मुझे नाम नहीं,
कब आँखों में पड़ी थी रौशनी,
मुश्किल लगता बतलाना है,
क्या समझाऊं मैं किसी को दर्द अपना,
जब लगता आसान दर्द को पाना है ,
कुछ दिखता है तो एहसास अपने आप का,
यहाँ सिर्फ अन्धकार है ,
चाहे दिन हो ,
चाहे हो रात,
मैं हर पल बस जगता हूँ,
आज़ादी के उन उजालों के नाम,
मैं यह ख़त लिखता हूँ||
शायद सभी भूल चुके हैं मुझे,
किसी को मैं याद नहीं,
माँ के हाथ से जो चढ़ रही है माला मेरी तस्वीर पे,
लगता है उसको भी मुझ मे अब सांस नहीं,
ज़िंदा हूँ मैं सिर्फ एक जगह,
एक ही जगह है मेरी पहचान,
गुमनामी के बाज़ार में,
हर दिन मैं बिकता हूँ,
अपने वतन के नाम,
मैं यह ख़त लिखता हूँ,