कितने दिनों से
ताकती थी इक लड़की
आस में ,
कि वो जानी जाए
किसी ख़ास से लिबास से .
पहचान जो ढूंढ रही थी अपनी .
लिबास ...
वह जो नीले रंग का
सफ़ेद रंग का
खाकी रंग का
शान वाला होता है न ,
“तरिणी” की छह ऐसी लडकियां या औरतें
जो सुदूर तक सागर के वर्चस्व तले
अपनी सत्ता का परचम लहरायें ,
तो उस ताकती लड़की की
आँखों में न चमक आ जाती है ;
जब पुलिस की ख़ाकी
उसे उसकी बायोलॉजी की सो कॉल्ड कमज़ोरी नही,
उसकी काबिलियत के तमगे
का फ़क्र महसूस कराये ,
जब इसरो में साड़ी में बैठी एक वो
विज्ञान और अंतरिक्ष की गुफ्तगू
की भागीदार बने ,
जब वो हॉस्पिटल के ‘रोब ‘ में
सैकड़ों हड्डियों के टूटने सी प्रसव-वेदना
की प्रक्रिया से गुजरी बैठी हो ,
पर सृजन की रौनक से सजी भी .
जब वो सपने सजाती ,
घर और मल्टीटास्किंग के पैरामीटर्स पर
कसने को खुद को तैयार करती
नए परिवार में नए रिश्ते जोड़ने की
कोशिश करती ,
सुर्ख लाल में दुल्हन सी होती ,
तो वही ताकती लड़की इस दुनिया के खूबसूरत
हिस्सों की तस्वीर की तारीफ में,
खुश हो जाती ,
पर लिबास जो
निहायती ही भद्दा ,
वीभत्स और ह्रदय को
चीर कर रख दे,
ऐसा हो तो ?
लिबास कफ़न का ,
लिबास भेडियों के पाशविक कारनामों के
किस्से सुनाता ,
लिबास एसिड और आग की
बूंदों और लपटों की
तडपाती याद दिलाता ,
लिबास
हर उस मीठे पुराने जुड़े ख़ास अहसास को
नोंच फेंकता
जो इस बाहरी दुनिया से वाकिफ रखते हैं .
पर ये तकलीफदेह लिबास
उस के पार
रूह को छलनी करते हैं ,
चुभते हैं .
यह आवरण उर्फ़ लिबास
जब हटता है न ,
तब तलवारें , हवसें और
बेइन्तेहाँ नफरतें
नंगी रूबरू हो जाया करती हैं
किसी तीन ,पांच ,सत्रह , बीस ,तीस या चालीस साल की
औरत की आत्मा को बिखेर कर .
और तब
वो ताकती लड़की
बस
अनंत क्षितिज की ओर
ताकती ही रहती है .....
फिर भला रूह के
ऊपर ये तमाम
आवरण क्यूँ ?
क्या लिबासों की
खूबसूरती से
हो गयी जिंदगियां खूबसूरत ?
आवरण से किताब को
जज नही करते ...तो कह दिया ,
पर क्या ठहर कर आदमी की रूह
उसके मन के दामन में पड़े
सिसकते भड़कते उमड़ते घुमड़ते
ख़याल और हाल
नही पूछेंगे हम ?
क्यूंकि हमारे ही तो बीच के
“लिबासों “ में लिपटे
ख़याल हैं ये !
“आधी आबादी “के भी
और इन नंगे वीभत्स कुरूप
हिंसा के पैरोकारों के भी .
देश , धरती और संसार
जल रहे हैं
पिघल रहे हैं ,
तड़प रहे हैं ,
अब तो नकली ‘लिबासों’ से
परे
आ जाओ ,मेरे दोस्तों .
आओ कि
हिन्दू –मुस्लिम – यहूदी- इसाई
औरत आदमी किन्नर होमोसेक्सुअल
काले गोरे
उत्तर पूर्वीय – दक्षिण भारतीय
थर्ड वर्ल्ड –फर्स्ट वर्ल्ड ,
आदिवासी – दलित –अल्पसंख्यक
हिंदी –अंग्रेजी –फलां
के थोपे हुए लिबासों
के अन्दर छुपी
दमकती चमकती
आभाओं के असल
लिबास को पहचानें
तब वह ताकती लड़की
और उसके बगल में बैठा एक लड़का ,
जिसका उस लड़की को
अहसास नही था ,
क्यूंकि वह तो ग़ुम थी
इन लिबासों में पहचान खोजने में ,
क्षितिज की लालिमा
और नए सूरज की
दस्तक
देख
गुनगुनाते हुए
दोनों
निकल जाते हैं
फिर से इक,
ख़ास आस में.