मैं अकेला

अतीत जो था
वह रूठकर चला गया है।
संकरी गलियों से होकर
गुजर रहा है
मेरा वर्तमान
भविष्य अभी सोया हुआ है
जगा नहीं है।
सुबह आया था सूरज
मेरे गलियारों में
एक आपस में
बहुत बातें की
जो आशाएं थी
उस पर
जो बनते बनते
बिगड गयी बात
उस पर भी
अब सूरज ढल रहा है।
यादों के क्षितिज पर
कभी मंडराते हैं
काले बादलों की तरह
वो अधुरे रह गए
मेरे और सूरज के सपने
दुख से सिंकुड जाता है
मन-प्राण
मैं स्वभाव से अकेला हूँ
इस भरी दुनियाँ में
नहीं है कहीं किसी से
मेल दूर दूर तक
जिस तरह सूरज
अकेला है क्षितिज में।


तारीख: 14.02.2024                                    वैद्यनाथ उपाध्याय









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