मेघ

उमड़ते और घुमड़ते है
आसमान की चादर में

थमते और ठहरते हैं
इन आँखों की चारदीवारी में

गरजते और बरसते हैं
तुम्हे छुने की लाचारी से

कितने नादाँ हैं बिचारे..

लड़ते और झगरते हैं
उन मासूम बूंदों से

जो छूकर और उलझकर तुझमे
खो जाते हैं..

न जाने कहाँ...
बड़ी ही खामोशी से।


तारीख: 19.06.2017                                    अंकित मिश्रा




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