मैं तर बतर हुई
भीग रही थी उन्मुुक्त सी
उस शीतल सुंगंधित बारिश में
वो अपलक देखे जा रहा था।
उसके अधरों पर
स्मित की रेखा
कभी लंबी कभी छोटी होती दिखती थी,
इधर मेरे फैली दोनो हथेलियों में
उसकी बूंदे छिटक-छिटक जाती थीं।
वो बादल
मिटता हुआ बरस रहा था
भिगाते हुए भी अपने दोनो हाथों से
मेरे अश्रु छिपा-छिपा पोछ रहा था।
मैंने तब जाना
किसी को प्रेम में भिगा देना,
ईश्वर हो जाना होता है।
मैंने उसे परमेश्वर कह,
परमेश्वर माना।