परमेश्वर होना

मैं तर बतर हुई
भीग रही थी उन्मुुक्त सी 

उस शीतल सुंगंधित बारिश में
वो अपलक देखे जा रहा था।

उसके अधरों पर
स्मित की रेखा
कभी लंबी कभी छोटी होती दिखती थी,
इधर मेरे फैली दोनो हथेलियों में
उसकी बूंदे छिटक-छिटक जाती थीं।

वो बादल
मिटता हुआ बरस रहा था
भिगाते हुए भी अपने दोनो हाथों से 
मेरे अश्रु छिपा-छिपा पोछ रहा था।

मैंने तब जाना
किसी को प्रेम में भिगा देना,
ईश्वर हो जाना होता है।

मैंने उसे परमेश्वर कह,
परमेश्वर माना।


तारीख: 01.03.2024                                    भावना कुकरेती




रचना शेयर करिये :




नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है