जब गेहूँ की बालियाँ सूखने को होती हैं,
तब उनमें से निकलते हैं वे बारीक कीड़े,
जो हवा में तैरते हुए
किसी अनजानी साजिश की तरह
शरीर पर आ गिरते हैं।
कोई उन्हें देख नहीं पाता,
बस एक जलन महसूस होती है—
पहले हल्की सी चुभन,
फिर एक लाल दाग,
और फिर धीरे-धीरे,
त्वचा का वो हिस्सा पकने लगता है,
जैसे किसी भूले हुए ज़ख़्म का हिसाब
अब लिया जा रहा हो।
ये कीड़े अनाज की भूख से नहीं,
सिर्फ़ वक़्त के बदलाव से निकलते हैं,
जैसे हर परिवर्तन के साथ
कोई न कोई दर्द बंधा हो,
जो पहले अदृश्य रहता है
और फिर एक जलती हुई टीस में बदल जाता है।
कई बार सोचता हूँ—
क्या खेत भी ऐसे ही सुलगते होंगे,
जब उनकी हरी-भरी देह
सुनहरे सूखे में बदलती होगी?
क्या ज़मीन की त्वचा भी पकती होगी,
जब उस पर पहली दरार पड़ती होगी?
और क्या हम भी
अपनी ही किसी अनदेखी फसल के कीड़े हैं,
जो धीरे-धीरे,
समय के साथ किसी और की त्वचा पर
अपनी जलन छोड़ते जाते हैं?