बरस रहें हैं मेघ अनवरत
ठंडे पड़े चुके आश्वासन में
प्राण प्रसारित करने को
हाथ बुन रहें हैं मनगढ़ंत किस्से
खुद को समझाते मनाते
ठहाकों में गुम हुई खुशी
तलाशते निराश होते ।
बंद आलमारी में गश्त लगाती यादें
और पन्नों में कैद सूखा गुलाब
कुछ व्यंजन जो किसी और को
परोसे नहीं जाते
बेस्वाद से खड़े हैं ।
संभाल के रखे कपड़ों की सुगंध को
मिल गया समय का साथ
छोड़ के चली गई वो खाली हाथ ।
हिम कड़ बने अश्रु तो नहीं बहे,
पर आत्मा करती रही विलाप
ये किससे कहें ।
काश कि पहिया उल्टा घूमे
समय फिर समय पे आ जाए
फिर से रंगीन लगे प्रसून
और विःवल मन बहला जाए ।
फिर साथ तुम्हारा पाकर मैं
हो जाऊं पत्थर से पल्लव
आज़ाद करूं मृगतृष्णा को
नव जीवन में हो मधु कलरव ।
जब दृष्टि तुम्हारी पड़ते ही
सारी सृष्टि मुस्काएगी
शांत, सनातन, शुभ, सुंदरता
पूरी नहीं समाएगी ।
उस रोज़ प्रिए होगा प्रणीत
मेरा मृतप्राय पड़ा जीवन
तुमको पाकर, तुम में खोकर
फिर जीवित होगा अंतर्मन ।