उन्मुक्तता और प्रेम

जिन पर्वत श्रृंखलाओं को
निहारा करती हो तुम,
अपने छत की ऊँचाई से!
वही पहाड़-
रोकते हैं मेरा दृष्टिपथ।
हमारे गुणों के सुमेलन में
उभयनिष्ठ हैं
कुछ पर्वत शिखर।

इसलिए हमारे प्रेम को मिली
आसमान की ऊँचाई,
जहाँ उड़ते-
रुई के फाहों को
अक्सर चूम लेती हो तुम।
फिर उनकी प्रतिच्छाया में
उमग उठता है-'मन मेरा'!

मेरे आश्चर्य का
पुनः-पुनः
परिसीमन करती तुम!
खाली सड़क पर चलते वक्त
अक्सर धर लेती हो
रूप-हरे समंदर का,
और मेरा प्रेम;
उनके ऊपर उड़ते
छोटे पंछी जितना उन्मुक्त हो जाता है।


तारीख: 24.02.2024                                    अंकित









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