मेरे गाँव से निकली एक पगडंडी,
बैसाख की धूप में जवान होकर,
जेठ में पक कर सड़क बन जाती है
बढ़कर आगे और होती है चौड़ी,
हो जाती है शहर,
घुस जाती है भूल-भुलैया गलियों में,
बाग़ बगीचों की छांव में सुस्ताने वाली,
इमारतों के बीच ऊँघाने लगती है।
फिर आता है जब भादो,
आता है बाढ़,
और कट जाती है ऐसी कई पगडंडियां।
कटी हुई एक पगडण्डी अभी भी
एक छोर से लगकर झूल रही है।
उस माँ के पेट से,
जिसने दिया है एक नवजात को जन्म
अभी अभी।