मकबूल: जब शेक्सपियर मुंबई के अंडरवर्ल्ड में ज़िंदा हो उठे


नमस्ते, मैं लिपिका! थिएटर और सिनेमा के संगम से ज़्यादा रोमांचक मेरे लिए कुछ भी नहीं। सोचिए, एक तरफ़ सदियों पुराने, कालजयी नाटक का वज़न और दूसरी तरफ़ कैमरे की वो जादुई नज़र जो हर भावना को क़रीब से पकड़ लेती है। जब ये दोनों मिल जाएँ, तो 'मकबूल' जैसी कृति जन्म लेती है। विशाल भारद्वाज का नाम जब भी शेक्सपियर के साथ जुड़ता है, तो दिल में एक उम्मीद और उत्सुकता दोनों जाग जाती है। और 'मकबूल' तो इस जोड़ी का वो पहला, सबसे दमदार शाहकार है जिसने मुझे, एक थिएटर और सिनेमा प्रेमी के तौर पर, हमेशा के लिए अपना क़ायल बना लिया।

विलियम शेक्सपियर का 'मैकबेथ' – सत्ता, महत्वाकांक्षा, अपराध बोध और पतन की वो कहानी, जिसे दुनिया भर में हज़ारों बार मंच पर खेला गया है। लेकिन विशाल भारद्वाज ने स्कॉटलैंड के धुंध भरे किलों और राजाओं को मुंबई के अँधेरे, गंदे और ख़तरनाक अंडरवर्ल्ड में बदल दिया, और क्या ख़ूब बदला! यहाँ राजा डंकन बन जाते हैं जहाँगीर ख़ान उर्फ़ अब्बाजी (पंकज कपूर), जिनकी सल्तनत मुंबई है। और उनके सबसे वफ़ादार, सबसे काबिल सिपहसलार मैकबेथ बन जाते हैं मियां मकबूल (इरफ़ान ख़ान)।

किरदार नहीं, ज़िंदा इंसान:

थिएटर की सबसे बड़ी ताक़त उसके किरदार और उनका अभिनय होता है, और 'मकबूल' इस पैमाने पर सोने की तरह खरा उतरता है। यहाँ हर कलाकार एक संस्था है:

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इरफ़ान ख़ान (मकबूल): आह, इरफ़ान! उनकी आँखें... वफ़ादारी, प्यार, महत्वाकांक्षा, डर, अपराध बोध और पागलपन – हर भाव उनकी आँखों से होकर गुज़रता था। मैकबेथ के आंतरिक संघर्ष को, उसके पतन को इरफ़ान ने जिस शिद्दत से जिया है, वो देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। वे ताक़तवर हैं, पर कमज़ोर भी; क्रूर हैं, पर डरे हुए भी।
तब्बू (निम्मी): लेडी मैकबेथ का इससे बेहतर भारतीय रूपांतरण शायद ही मुमकिन था। तब्बू की निम्मी सिर्फ़ एक महत्वाकांक्षी औरत नहीं, वो मकबूल का जुनून है, उसकी प्रेरणा है, और उसका विनाश भी। उसकी आँखों में एक अजीब सी कशिश है, जो मकबूल को अब्बाजी के ख़ून की ओर खींचती है, लेकिन बाद में वही ख़ून उसके हाथों से धुलता नहीं। उसका पागलपन का दृश्य सिनेमाई इतिहास में दर्ज है।
पंकज कपूर (अब्बाजी): वे अंडरवर्ल्ड के 'किंग डंकन' हैं। उनकी धीमी आवाज़, उनकी चाल-ढाल में एक अजीब सा रौब है। वे प्यार भी करते हैं, लेकिन उनकी सत्ता का डर हमेशा बना रहता है। पंकज कपूर ने इस किरदार को एक ऐसा आयाम दिया है कि आप उनसे नफ़रत भी नहीं कर पाते, और हमदर्दी भी नहीं रख पाते।
नसीरुद्दीन शाह और ओम पुरी: ये फ़िल्म के 'विचेस' हैं – पंडित और पुरोहित, दो भ्रष्ट पुलिसवाले। वे भविष्यवाणियाँ नहीं करते, वे 'कुंडली' पढ़ते हैं, वे हालात का फ़ायदा उठाते हैं, और मकबूल के मन में महत्वाकांक्षा का बीज बोते हैं। उनके संवाद, उनका अंदाज़, फ़िल्म में एक डार्क ह्यूमर और नियति का अजीब खेल लेकर आते हैं।

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संवाद और निर्देशन: विशाल भारद्वाज का जादू

विशाल भारद्वाज सिर्फ़ एक निर्देशक नहीं, वे एक कवि हैं, एक संगीतकार हैं। उन्होंने अब्बास टायरवाला के साथ मिलकर जो संवाद लिखे हैं, वे मुंबई की भाषा में शेक्सपियर की रूह को ज़िंदा कर देते हैं। "जान लेवा है तेरी आँखें, और तू जान मांग रही है," या "गुनाह समंदर की तरह होता है... उसकी सतह जितनी शांत, गहराई उतनी ही ख़तरनाक।" - ये संवाद कानों से होकर सीधे दिल में उतरते हैं।

निर्देशक के तौर पर, विशाल ने मुंबई के अंडरवर्ल्ड का एक ऐसा यथार्थवादी और साथ ही काव्यात्मक चित्र खींचा है, जो आपको जकड़ लेता है। अँधेरे कोने, बारिश में भीगती गलियाँ, खून के धब्बे और किरदारों के चेहरे पर बदलते भाव - सब कुछ मिलकर एक ऐसा माहौल बनाते हैं, जो त्रासदी के लिए बिल्कुल मुफ़ीद है। फ़िल्म का संगीत इसकी आत्मा है, जो तनाव को और गहरा करता है।

थिएटर और सिनेमा का संगम:

लिपिका की नज़र से देखूँ, तो 'मकबूल' एक बेहतरीन उदाहरण है कि कैसे थिएटर की नाटकीयता को सिनेमा की बारीकियों के साथ मिलाया जा सकता है। कई दृश्य, जैसे अब्बाजी की हत्या का दृश्य, या दावत का वो सीन जहाँ मकबूल को काका का भूत दिखता है, या निम्मी का पागलपन – इन सबमें एक थियेट्रिकल ग्रैंडeur है, लेकिन कैमरा उन्हें इतनी क़रीबी से दिखाता है कि आप हर किरदार की साँसें महसूस कर सकते हैं। क्लोज-अप्स में अभिनेताओं के चेहरे का हर भाव एक लंबा मोनोलॉग कह जाता है।

कुछ दिलचस्प क़िस्से:

इस बेहतरीन फ़िल्म से जुड़े कुछ क़िस्से भी इसकी तरह ही दिलचस्प हैं:

मकबूल की पहली पसंद: क्या आप यकीन करेंगे कि मकबूल के इस यादगार किरदार के लिए विशाल भारद्वाज की पहली पसंद इरफ़ान ख़ान नहीं थे? उन्होंने पहले कमल हाasan से भी बात की थी। लेकिन शायद नियति को कुछ और ही मंज़ूर था, और यह रोल आख़िरकार इरफ़ान की झोली में आया। आज जब हम मकबूल के बारे में सोचते हैं, तो इरफ़ान के चेहरे के सिवा कोई और चेहरा ज़हन में आता ही नहीं!
भविष्यवाणी करने वाले पुलिसवाले: शेक्सपियर की तीन चुड़ैलों को दो भ्रष्ट पुलिसवालों - पंडित और पुरोहित - में बदलना विशाल भारद्वाज का एक मास्टरस्ट्रोक था। और इन किरदारों के लिए नसीरुद्दीन शाह और ओम पुरी जैसे दिग्गजों को लाना सोने पे सुहागा था। इन दोनों अभिनेताओं ने अपने किरदारों को और दिलचस्प बनाने के लिए ख़ुद भी कई सुझाव दिए और उनके बीच की केमिस्ट्री ने उन दृश्यों में एक अलग ही जान डाल दी।
निष्कर्ष:

'मकबूल' महज़ एक क्राइम ड्रामा नहीं है, यह मानवीय मनोविज्ञान का, महत्वाकांक्षा के अंधे कुएँ का, और अपराध बोध की आग में जलने का एक गहरा अध्ययन है। यह दिखाती है कि सत्ता का नशा कैसे वफ़ादारी, प्यार और इंसानियत को निगल जाता है। यह विशाल भारद्वाज की प्रतिभा का और भारतीय सिनेमा के बेहतरीन अभिनेताओं का एक शानदार उत्सव है। यह वो फ़िल्म है, जिसे हर सिनेमा और थिएटर प्रेमी को ज़रूर देखना चाहिए, क्योंकि यह वो दुर्लभ संगम है, जहाँ शब्द, अभिनय और दृश्य मिलकर एक अविस्मरणीय अनुभव रचते हैं।


तारीख: 24.05.2025                                    लिपिका




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