पथेर पांचाली: धुंधली यादों की रेलगाड़ी और ज़िंदगी का अनवरत सफ़र

मैं लिपिका, उम्र के तीसरे दशक की दहलीज पर खड़ी, दुनिया को कभी घुमक्कड़ी की नज़रों से देखती हूँ, कभी सिनेमा के परदे पर उतरती कहानियों में खो जाती हूँ, तो कभी थिएटर के मंच पर किरदारों को जीते हुए पाती हूँ। ज़िंदगी के इन्हीं सफ़रों में कुछ फ़िल्में ऐसी मिलती हैं, जो महज़ मनोरंजन नहीं करतीं, बल्कि आपकी रूह में उतर जाती हैं। सत्यजित राय की 'पथेर पांचाली' मेरे लिए ऐसी ही एक फ़िल्म है, एक अनुभव है, एक ऐसी धुंधली सी याद जिसे मैं बार-बार जीना चाहती हूँ।

मुझे याद है, मैंने पहली बार 'पथेर पांचाली' कॉलेज के दिनों में देखी थी, एक पुरानी सी प्रोजेक्टर स्क्रीन पर। बाहर तेज़ बारिश हो रही थी और अंदर, निश्चिंदीपुर गाँव की वो धूल भरी गलियाँ, वो काँस के फूलों का जंगल और वो बारिश में भीगते अपू-दुर्गा मेरे दिल पर अपनी छाप छोड़ रहे थे। उस दिन के बाद से, जब भी मैं किसी गाँव की पगडंडी पर चलती हूँ, या ट्रेन की खिड़की से दूर तक फैले खेतों को देखती हूँ, मुझे अपू और दुर्गा की याद ज़रूर आती है।

कहानी नहीं, ज़िंदगी का एक टुकड़ा

'पथेर पांचाली' की सबसे ख़ास बात शायद यही है कि इसकी कोई पारंपरिक 'कहानी' नहीं है। इसमें कोई खलनायक नहीं, कोई नाटकीय मोड़ नहीं, कोई क्लाइमेक्स नहीं। यह तो बस बहती हुई नदी की तरह है, जिसमें ज़िंदगी के छोटे-छोटे पल, ख़ुशियाँ, ग़म, उम्मीदें और निराशाएँ घुलती-मिलती रहती हैं। विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित यह फ़िल्म, निश्चिंदीपुर गाँव के एक ग़रीब ब्राह्मण परिवार की ज़िंदगी को जस का तस दिखाती है। यह हरिहर, एक पुजारी जो कवि बनना चाहता है, लेकिन ज़िंदगी की ज़रूरतों के आगे उसके सपने धुंधला जाते हैं; सर्वजया, एक माँ, जो अपने बच्चों के लिए हर मुश्किल से लड़ती है, उसकी आँखों में कभी चिंता दिखती है, तो कभी एक अनकही पीड़ा; और उनके दो बच्चे - दुर्गा और अपू की कहानी है। इसकी कहानी किसी तयशुदा रास्ते पर नहीं चलती, बल्कि ज़िंदगी की पगडंडियों पर भटकती है, और यही भटकाव इसे इतना सच्चा और अपना सा बना देता है।

अभिनय जो अभिनय लगता ही नहीं

सिनेमा और थिएटर की शौकीन होने के नाते, अभिनय हमेशा मेरे लिए बहुत मायने रखता है। 'पथेर पांचाली' इस मामले में एक चमत्कार है! राय साहब ने ज़्यादातर ग़ैर-पेशेवर कलाकारों के साथ काम किया, और उनसे जो अभिनय करवाया, वो आज भी मिसाल है। सुबीर बनर्जी (अपू) और उमा दासगुप्ता (दुर्गा) तो जैसे कैमरे के सामने जी रहे थे। उनकी आँखों की चमक, उनकी शरारतें, उनका डर, सब कुछ इतना असली लगता है कि आप भूल जाते हैं कि वे अभिनय कर रहे हैं।

और इंदिर ठकरुन का किरदार निभाने वाली चुनीबाला देवी! वे रंगमंच की एक रिटायर्ड अभिनेत्री थीं, जिनकी उम्र उस वक़्त लगभग 80 वर्ष थी। राय उन्हें उनकी पिछली स्टेज परफॉर्मेंस के आधार पर जानते थे और उन्हें इस किरदार के लिए चुना। उन्होंने जो जीवंतता और मार्मिकता उस बूढ़ी, अकेली औरत के किरदार में भरी, वो हैरतअंगेज है। उनका झुककर चलना, उनकी झुर्रियों भरा चेहरा और उनकी आँखों में तैरती उदासी, इंदिर ठकरुन को अमर बना गई। सर्वजया बनी करुणा बनर्जी ने एक माँ की पीड़ा और संघर्ष को जिस संयम से दर्शाया, वो क़ाबिल-ए-तारीफ़ है। ये वो अभिनय है जो चीखता नहीं, बल्कि फुसफुसाता है, और सीधा दिल में उतर जाता है।

 

सत्यजित राय का निर्देशन: यथार्थ का काव्य

अगर 'पथेर पांचाली' एक कविता है, तो सत्यजित राय उसके कवि हैं। एक ग्राफिक डिजाइनर से फ़िल्ममेकर बने राय की नज़रों में एक अद्भुत जादू था। वे साधारण से दृश्यों को भी असाधारण बना देते थे। उन्होंने इटालियन नियो-रियलिज्म, विशेषकर 'बाइसिकल थीव्स' जैसी फिल्मों से प्रेरणा ज़रूर ली, लेकिन अपनी फ़िल्म को पूरी तरह से भारतीय मिट्टी में रचा-बसा रखा। उनका कैमरा किसी बाहरी दर्शक की तरह नहीं, बल्कि परिवार के एक सदस्य की तरह घटनाओं को देखता है।

बारिश का सीन हो, मिठाई वाले का आना हो, या अपू-दुर्गा का पहली बार ट्रेन देखना - हर फ्रेम में एक गहराई है, एक अर्थ है। राय साहब ने प्रकृति को भी एक किरदार की तरह इस्तेमाल किया। बारिश कभी ख़ुशी लाती है, तो कभी मातम; काँस के फूल उम्मीद का प्रतीक हैं। सुब्रत मित्रा की सिनेमैटोग्राफी, ख़ासकर आउटडोर शूटिंग में प्राकृतिक रोशनी के साथ 'बाउंस लाइटिंग' का कुशल प्रयोग, उस दौर में एक क्रांति थी। इसने फ़िल्म को एक नैसर्गिक और यथार्थवादी लुक दिया। और हाँ, पंडित रविशंकर का संगीत! वो सितार की धुनें फ़िल्म की आत्मा हैं, जो कभी बारिश की बूंदों के साथ टपकती हैं, तो कभी अपू के मन की उदासी को बयां करती हैं।

क्यों है यह सिनेमा का मील का पत्थर?

'पथेर पांचाली' सिर्फ़ एक बेहतरीन फ़िल्म नहीं है, यह भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक मील का पत्थर है। क्यों? क्योंकि इसने भारतीय सिनेमा को दुनिया के नक़्शे पर सम्मान दिलाया। इसने दिखाया कि बड़ी-बड़ी सेट्स और सितारों के बिना भी, सिर्फ़ सच्ची कहानी और मानवीय भावनाओं के दम पर कालजयी सिनेमा रचा जा सकता है। इसने भारत में 'समानांतर सिनेमा' या 'कला सिनेमा' की लहर को मज़बूत किया, एक ऐसी धारा जिसने भारतीय सिनेमा को नए विषय और नई भाषा दी।

इस फ़िल्म ने दुनिया को बताया कि भारत में सिर्फ़ नाच-गाने वाली मसाला फ़िल्में ही नहीं बनतीं, बल्कि यहाँ ज़िंदगी के गहरे और संवेदनशील पहलुओं को समझने और दर्शाने वाले फ़िल्मकार भी मौजूद हैं। 1956 के कांस फ़िल्म फेस्टिवल में 'सर्वश्रेष्ठ मानव दस्तावेज़' (Best Human Document) का प्रतिष्ठित अवॉर्ड जीतना इसकी वैश्विक स्वीकार्यता का प्रमाण था।

एक दिलचस्प क़िस्सा: मुश्किलों भरा सफ़र

इस फ़िल्म को बनाना भी किसी संघर्ष से कम नहीं था। राय साहब के पास पैसे नहीं थे। उन्होंने अपनी बीमा पॉलिसी गिरवी रखी, पत्नी के गहने बेचे। शूटिंग रुक-रुक कर होती रही, कभी पैसों की कमी से, तो कभी सही लोकेशन न मिलने से। कहते हैं कि काँस के फूलों वाला वो मशहूर सीन शूट करने के लिए उन्हें एक साल इंतज़ार करना पड़ा, क्योंकि पहली बार जब वे शूटिंग के लिए पहुँचे, तो गाँव वाले मवेशियों के चारे के लिए सारे फूल काट चुके थे!

लगभग ढाई-तीन साल तक यह फ़िल्म बनती रही और एक समय तो ऐसा लगा कि यह कभी पूरी ही नहीं हो पाएगी। तब पश्चिम बंगाल सरकार ने, तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. बिधान चंद्र रॉय के हस्तक्षेप के बाद, इसे एक 'ग्रामीण सड़क सुधार' परियोजना के अंतर्गत ऋण (लोन) देकर आर्थिक मदद दी और तब जाकर यह मास्टरपीस पूरा हो सका। यह क़िस्सा बताता है कि महान कलाकृति को जन्म देने के लिए कितनी लगन, जुनून और ज़िद की ज़रूरत होती है।

मेरे दिल की बात

मेरे लिए 'पथेर पांचाली' देखना किसी तीर्थ यात्रा पर जाने जैसा है। हर बार जब मैं इसे देखती हूँ, मुझे कुछ नया मिलता है, कुछ ऐसा जो दिल को छू जाता है। यह फ़िल्म मुझे याद दिलाती है कि ज़िंदगी कितनी भी कठिन क्यों न हो, उसमें हमेशा कुछ न कुछ सुंदर ज़रूर होता है, बस उसे देखने वाली नज़र चाहिए। ये फ़िल्म एक कविता है, एक गीत है, एक ऐसा सफ़र है जिसे हर सिनेमा प्रेमी को एक बार ज़रूर तय करना चाहिए। और शायद, एक बार नहीं, बार-बार। यह आपको हँसाएगी नहीं, शायद रुला देगी, लेकिन यह आपको ज़िंदगी को उसकी पूरी सच्चाई और खूबसूरती के साथ महसूस करना ज़रूर सिखा देगी।


तारीख: 24.05.2025                                    लिपिका




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