नमस्ते, मैं लिपिका! आज मैं आपको एक ऐसी फ़िल्म के सफ़र पर ले जाना चाहती हूँ, जो महज़ एक कहानी नहीं, बल्कि ज़िंदगी और पहचान के सबसे गहरे सवालों से आपका सामना करवाती है – आनंद गांधी की 'शिप ऑफ़ थिसियस'।
इसका नाम ही हमें एक प्राचीन ग्रीक पहेली की याद दिलाता है। सोचिए, एक जहाज़ है, 'थिसियस का जहाज़'। समय के साथ उसके पुराने, टूटे हुए तख्ते बदले जाते हैं। धीरे-धीरे, एक-एक करके, जहाज़ का हर पुर्ज़ा नया लगा दिया जाता है। अब सवाल यह उठता है – क्या यह अब भी वही 'थिसियस का जहाज़' है? या यह एक बिल्कुल नया जहाज़ बन चुका है? अगर हाँ, तो किस मोड़ पर इसने अपनी पहचान खो दी? और अगर नहीं, तो पहचान आख़िर होती क्या है? कहाँ बसती है वो? हमारे जिस्म में? हमारी यादों में? हमारे उसूलों में?
यही वो सवाल है जिसे आनंद गांधी ने तीन अलग-अलग जिंदगियों के ज़रिए छुआ है, और यकीन मानिए, यह फ़िल्म देखने के बाद ये सवाल आपके ज़हन में किसी नदी की तरह बहते रहेंगे।
फ़िल्म की पहली कड़ी है आलिया, मिस्र की एक प्रयोगधर्मी अंधी फ़ोटोग्राफ़र, जिसका किरदार आयडा एल-कशेल ने निभाया है। आयडा ख़ुद एक फ़िल्ममेकर हैं, और शायद इसीलिए वे इस किरदार की आत्मा को पकड़ पाई हैं। वे दिखाती हैं कि आलिया की दुनिया अँधेरी नहीं, बल्कि अलग है। वो आवाज़ों, स्पर्श और अपनी अंतर्दृष्टि से 'देखती' है, और उसकी तस्वीरें इस 'अलग नज़र' का सबूत हैं। उनकी अदाकारी में एक सहजता है, एक ठहराव है, जो आपको उनकी दुनिया में खींच लेता है।
लेकिन जब कॉर्निया ट्रांसप्लांट के बाद आलिया को आँखें मिलती हैं, तो उसकी ज़िंदगी और कला दोनों एक चौराहे पर आ खड़ी होती हैं। वो दुनिया को 'आम' लोगों की तरह देखने लगती है, लेकिन क्या वो अपनी उस अनोखी कलात्मक पहचान को खो देती है? जिस 'दृष्टि' ने उसे एक ख़ास फ़ोटोग्राफ़र बनाया, क्या वो अब महज़ 'नज़र' बनकर रह जाएगी? यहाँ थिसियस का जहाज़ उसकी कला है, उसकी पहचान है। क्या एक बदला हुआ 'पुर्ज़ा' (आँखें) उसे बदल देता है?
नीरज कबि... इस अभिनेता के लिए क्या कहा जाए! मैत्रेय के किरदार में वे सिर्फ़ अभिनय नहीं करते, वे उसे जीते हैं। एक जैन साधु, जो अहिंसा का पर्याय है, जो जानवरों पर होने वाले क्रूर प्रयोगों के ख़िलाफ़ अपनी जान की बाज़ी लगा देता है। नीरज कबि ने इस किरदार के लिए जो शारीरिक और मानसिक परिवर्तन किया (लगभग 17 किलो वज़न घटाना, महीनों तक किरदार की तरह जीना), वो परदे पर साफ़ झलकता है। उनकी आवाज़ में एक शांति है, लेकिन उनकी आँखों में उनके सिद्धांतों की अडिगता है।
उनका असली द्वंद्व तब शुरू होता है, जब उन्हें लिवर सिरोसिस हो जाता है और उन्हें ट्रांसप्लांट की ज़रूरत पड़ती है। अब सवाल उठता है – क्या वे वो दवाएँ लेंगे, जिन्हें बनाने के लिए उन्हीं जानवरों पर प्रयोग हुए हैं, जिनके वे रक्षक हैं? क्या अपने 'जहाज़' (शरीर) को बचाने के लिए, वे उन 'तख्तों' (उसूलों) को बदल देंगे, जिनसे उनकी पहचान बनी है? नीरज कबि इस आंतरिक संघर्ष को, इस दार्शनिक दुविधा को, बिना किसी मेलोड्रामा के, अपनी खामोशी और अपनी आँखों से बयां कर देते हैं। उनकी पीड़ा सिर्फ़ शारीरिक नहीं, बल्कि आत्मिक है। वे हमें सोचने पर मजबूर करते हैं कि 'स्व' क्या है – यह शरीर, या वो विचार जो इस शरीर को दिशा देते हैं?
सोहम शाह ने नवीन के किरदार को बड़ी ही ईमानदारी से निभाया है। वो मुंबई का एक आम स्टॉकब्रोकर है - महत्वाकांक्षी, दुनियादारी में रमा हुआ। जब उसे किडनी मिलती है, तो वो इसे ज़िंदगी का एक और सौदा समझता है। लेकिन जब उसे पता चलता है कि यह किडनी शायद किसी ग़रीब आदमी से अनैतिक तरीक़े से ली गई है, तो उसके अंदर का सोया हुआ ज़मीर जाग उठता है। सोहम शाह बड़ी ख़ूबसूरती से इस बदलाव को दर्शाते हैं - एक बेपरवाह इंसान से एक ज़िम्मेदार और संवेदनशील व्यक्ति बनने का सफ़र।
उसकी यात्रा स्टॉकहोम तक जाती है, लेकिन असल में यह उसके भीतर की यात्रा है। वो सिर्फ़ किडनी के मालिक को नहीं ढूंढ रहा, बल्कि अपने वजूद के एक हिस्से के इतिहास और उससे जुड़ी नैतिक ज़िम्मेदारी को खोज रहा है। क्या हम अपने शरीर के हर हिस्से के कर्मों के लिए ज़िम्मेदार हैं, चाहे वो हमें कहीं से भी मिला हो? नवीन की कहानी हमें दिखाती है कि कैसे एक 'नया पुर्ज़ा' हमें दुनिया से और ख़ुद से ज़्यादा गहराई से जोड़ सकता है।
आनंद गांधी की फ़िल्म 'थिसियस की पहेली' का कोई सीधा जवाब नहीं देती। बल्कि, यह हमें उस पहेली से भी आगे ले जाती है। यह महज़ पुर्ज़ों की बात नहीं करती, यह चेतना, कर्म और जुड़ाव की बात करती है। फ़िल्म का अंत, जहाँ तीनों किरदारों को एक अप्रत्याशित तरीक़े से जोड़ा जाता है, वो शायद यही कहता है कि हम सिर्फ़ अपने शरीर या अपनी यादों का जोड़ नहीं हैं। हम उस बड़ी तस्वीर का हिस्सा हैं, जहाँ हर ज़िंदगी दूसरी ज़िंदगी से जुड़ी है, जहाँ हर बदलाव एक नई संभावना को जन्म देता है।
शायद पहचान किसी ठहरे हुए जहाज़ की तरह नहीं, बल्कि एक बहती हुई नदी की तरह है। जिसके घाट बदलते हैं, पानी बदलता है, लेकिन वो नदी बनी रहती है। शायद हम भी ऐसे ही हैं - बदलते हुए, जुड़ते हुए, विकसित होते हुए। शायद 'स्व' कोई स्थिर चीज़ नहीं, बल्कि एक सतत प्रक्रिया है, एक यात्रा है।
'शिप ऑफ़ थिसियस' एक ऐसी फ़िल्म है जो सिनेमा हॉल से निकलने के बाद भी आपके साथ चलती है। यह आपसे बातें करती है, आपको कुरेदती है। यह विज्ञान, दर्शन और आध्यात्म के धागों से बुनी एक ऐसी चादर है, जिसे ओढ़कर आप ज़िंदगी को, और शायद ख़ुद को भी, एक नई नज़र से देखने लगते हैं। यह भारतीय सिनेमा का वो 'जहाज़' है, जिसके हर 'तख्ते' पर हमें नाज़ है।