सम-विषम के फेर में ग्यारह-तेरह मात्राओं में बंधा मैं रोला छंद-सा पाता विश्राम और तुम मुक्त छंद-सी यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरी हुई जैसे कोई समकालीन कविता
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