एक रस्म मुझको निभाने दो
तुझमे ही मुझको खो जाने दो ।
शेर कहूँगा कभी मैं भी ग़ालिब सा
दौर मेरा भी मुफलिसी का आने दो ।
रुख से हटा दो नकाब ओ पर्दानशीं
देखके तुझको चाँद को भी शर्माने दो ।
सारे शहर में चर्चा ए आम है मेरी ग़ज़ल का
तुमको देखकर एक ग़ज़ल गुनगुनाने दो ।
बंधना न तुम जुल्फों को अपनी
घटाओं को जम के बरस जाने दो ।
झुकी निगाहें और होंठों की शरारत
सजा-ए-मौत मेरी इनको सुनाने दो ।
रोकना न तुम यादों का सिलसिला रिशु
आग में इनकी मुझको जल जाने दो ।