एक रस्म मुझको निभाने दो

एक रस्म मुझको निभाने दो
तुझमे ही मुझको खो जाने दो ।

शेर कहूँगा कभी मैं भी ग़ालिब सा
दौर मेरा भी मुफलिसी का आने दो ।

रुख से हटा दो नकाब ओ पर्दानशीं
देखके तुझको चाँद को भी  शर्माने दो ।

सारे शहर में चर्चा ए आम है मेरी ग़ज़ल का
तुमको देखकर एक ग़ज़ल गुनगुनाने दो ।

बंधना न तुम जुल्फों को अपनी
घटाओं को जम के बरस जाने दो ।

झुकी निगाहें और होंठों की शरारत
सजा-ए-मौत मेरी इनको सुनाने दो ।

रोकना न तुम यादों का सिलसिला रिशु
आग में इनकी मुझको जल जाने दो ।


तारीख: 16.06.2017                                    ऋषभ शर्मा रिशु









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