दास्तान-ऐ-बैचेनी का सबब ना पूछ मेरे हमराह
लगती है बङी मुकम्मल चोट, ये कोई छोटा दर्द तो नहीं
पत्थर को देकर चोटें, खुदा बना देता है संगतराश
किसी अपने से दिल का टूटना ही कोई ज़र्ब तो नहीं
ठंडी हवाएं जिस्म से रूह तक निचोड़ लेती हैं गरीब की
करना मजारों पर रुखसती, चादर की कोई कद्र तो नहीं
वृद्धाश्रम, कभी पता नहीं बताता, बददुआओं को अपने घर का
पर बे-दूध बूढ़ी गायों का ये कोई मुकम्मल हश्र तो नहीं
कौन चाहता है फाकाकशी में जीना, है नसीब को दुहाई
किसी महबूब से बिछङ के जीना ही कोई सब्र तो नहीं
रोज थोङे से मर जाते हैं ख्वाब, टूटती ख्वाहिशों के दरमियां
जो हैं जमीं की गोद, केवल वही पनाहे-कब्र तो नहीं
ज़र्ब= घाव