रमज़ान के पूरे तीस रोज़ों के बाद ईद आई है| कितना मनोहर, कितना सुहावना प्रभाव है| वृक्षों पर अजीब हरियाली है, खेतों में कुछ अजीब रौनक है, आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है| गांव में कितनी हलचल है| ईदगाह जाने की तैयारियां हो रही हैं| किसी के कुरते में बटन नहीं है, पड़ोस के घर में सुई-धागा लेने दौड़ा जा रहा है| किसी के जूते कड़े हो गए हैं, उनमें तेल डालने के लिए तेली के घर पर भागा जाता है| लड़के सबसे ज़्यादा प्रसन्न हैं| किसी ने एक रोज़ा रखा है, वह भी दोपहर तक, किसी ने वह भी नहीं, लेकिन ईदगाह जाने की ख़ुशी उनके हिस्से की चीज़ है| रोज़े बड़े-बूढ़ों के लिए होंगे| इनके लिए तो ईद है| रोज़ ईद का नाम रटते थे, आज वह आ गई|अब जल्दी पड़ी है कि लोग ईदगाह क्यों नहीं चलते| इन्हें गृहस्थी की चिंताओं से क्या प्रयोजन! सेवैयों के लिए दूध ओर शक्कर घर में है या नहीं, इनकी बला से, ये तो सेवैयां खाएंगे| वह क्या जानें कि अब्बाजान क्यों बदहवास चौधरी कायमअली के घर दौड़े जा रहे हैं| उन्हें क्या ख़बर कि चौधरी आंखें बदल लें, तो यह सारी ईद मुहर्रम हो जाए| उनकी अपनी जेबों में तो कुबेर का धन भरा हुआ है| बार-बार जेब से अपना खज़ाना निकालकर गिनते हैं और ख़ुश होकर फिर रख लेते हैं| महमूद गिनता है, एक-दो, दस,-बारह, उसके पास बारह पैसे हैं| मोहसिन के पास एक, दो, तीन, आठ, नौ, पंद्रह पैसे हैं| इन्हीं अनगिनती पैसों में अनगिनती चीज़ें लाएंगे-खिलौने, मिठाइयां, बिगुल, गेंद और जाने क्या-क्या| और सबसे ज्यादा प्रसन्न है हामिद| वह चार-पांच साल का ग़रीब-सूरत, दुबला-पतला लड़का, जिसका बाप गत वर्ष हैजे की भेंट हो गया और मां न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर गई| किसी को पता क्या बीमारी है| कहती तो कौन सुनने वाला था? दिल पर जो कुछ बीतती थी, वह दिल में ही सहती थी ओर जब न सहा गया तो संसार से विदा हो गई| अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है और उतना ही प्रसन्न है| उसके अब्बाजान रुपए कमाने गए हैं| बहुत-सी थैलियां लेकर आएंगे| अम्मीजान अल्लाह मियां के घर से उसके लिए बड़ी अच्छी-अच्छी चीज़ें लाने गई हैं, इसलिए हामिद प्रसन्न है| आशा तो बड़ी चीज़ है, और फिर बच्चों की आशा! उनकी कल्पना तो राई का पर्वत बना लेती है| हामिद के पांव में जूते नहीं हैं, सिर पर एक पुरानी-धुरानी टोपी है, जिसका गोटा काला पड़ गया है, फिर भी वह प्रसन्न है| जब उसके अब्बाजान थैलियां और अम्मीजान नियामतें लेकर आएंगी, तो वह दिल से अरमान निकाल लेगा| तब देखेगा, मोहसिन, नूरे और सम्मी कहां से उतने पैसे निकालेंगे| अभागिन अमीना अपनी कोठरी में बैठी रो रही है| आज ईद का दिन, उसके घर में दाना नहीं! आज आबिद होता, तो क्या इसी तरह ईद आती ओर चली जाती! इस अंधकार और निराशा में वह डूबी जा रही है| किसने बुलाया था इस निगोड़ी ईद को? इस घर में उसका काम नहीं, लेकिन हामिद! उसे किसी के मरने-जीने से क्या मतलब? उसके अन्दर प्रकाश है, बाहर आशा| विपत्ति अपना सारा दल-बल लेकर आए, हामिद की आनंद-भरी चितवन उसका विध्वंस कर देगी| हामिद भीतर जाकर दादी से कहता है-तुम डरना नहीं अम्मा, मैं सबसे पहले आऊंगा| बिल्कुल न डरना|
अमीना का दिल कचोट रहा है| गांव के बच्चे अपने-अपने बाप के साथ जा रहे हैं| हामिद का बाप अमीना के सिवा और कौन है! उसे कैसे अकेले मेले जाने दे? उस भीड़-भाड़ से बच्चा कहीं खो जाए तो क्या हो? नहीं, अमीना उसे यों न जाने देगी| नन्ही-सी जान! तीन कोस चलेगा कैसे? पैर में छाले पड़ जाएंगे| जूते भी तो नहीं हैं| वह थोड़ी-थोड़ी दूर पर उसे गोद में ले लेती, लेकिन यहां सेवैयां कौन पकाएगा? पैसे होते तो लौटते-लौटते सब सामग्री जमा करके चटपट बना लेती| यहां तो घंटों चीज़ें जमा करते लगेंगे| मांगे का ही तो भरोसा ठहरा| उस दिन फ़हीमन के कपड़े सिले थे| आठ आने पैसे मिले थे| उस अठन्नी को ईमान की तरह बचाती चली आती थी इसी ईद के लिए लेकिन कल ग्वालन सिर पर सवार हो गई तो क्या करती? हामिद के लिए कुछ नहीं है, तो दो पैसे का दूध तो चाहिए ही| अब तो कुल दो आने पैसे बच रहे हैं| तीन पैसे हामिद की जेब में, पांच अमीना के बटवे में| यही तो बिसात है और ईद का त्यौहार, अल्लाह ही बेड़ा पार लगावे| धोबन और नाइन और मेहतरानी और चुड़िहारिन सभी तो आएंगी| सभी को सेवैयां चाहिए और थोड़ा किसी को आंखों नहीं लगता| किस-किस से मुंह चुराएगी? और मुंह क्यों चुराए? साल भर का त्यौहार है| ज़िंदगी ख़ैरियत से रहे, उनकी तक़दीर भी तो उसी के साथ है| बच्चे को ख़ुदा सलामत रखे, ये दिन भी कट जाएंगे|
गांव से मेला चला| और बच्चों के साथ हामिद भी जा रहा था| कभी सबके सब दौड़कर आगे निकल जाते| फिर किसी पेड़ के नीचे खड़े होकर साथ वालों का इंतज़ार करते| यह लोग क्यों इतना धीरे-धीरे चल रहे हैं? हामिद के पैरों में तो जैसे पर लग गए हैं| वह कभी थक सकता है? शहर का दामन आ गया| सड़क के दोनों ओर अमीरों के बगीचे हैं| पक्की चारदीवारी बनी हुई है| पेड़ों में आम और लीचियां लगी हुई हैं| कभी-कभी कोई लड़का कंकड़ी उठाकर आम पर निशान लगाता है| माली अंदर से गाली देता हुआ निकलता है| लड़के वहां से एक फर्लांग पर हैं| ख़ूब हंस रहे हैं| माली को कैसा उल्लू बनाया है|
बड़ी-बड़ी इमारतें आने लगीं| यह अदालत है, यह कॉलेज है, यह क्लब-घर है| इतने बड़े कॉलेज में कितने लड़के पढ़ते होंगे? सब लड़के नहीं हैं जी! बड़े-बड़े आदमी हैं, सच! उनकी बड़ी-बड़ी मूंछे हैं| इतने बड़े हो गए, अभी तक पढ़ने जाते हैं| न जाने कब तक पढ़ेंगे और क्या करेंगे इतना पढ़कर! हामिद के मदरसे में दो-तीन बड़े-बड़े लड़के हैं, बिल्कुल तीन कौड़ी के| रोज़ मार खाते हैं, काम से जी चुराने वाले| इस जगह भी उसी तरह के लोग होंगे ओर क्या| क्लब-घर में जादू होता है| सुना है, यहां मुर्दों की खोपड़ियां दौड़ती हैं| और बड़े-बड़े तमाशे होते हैं, पर किसी को अंदर नहीं जाने देते| और वहां शाम को साहब लोग खेलते हैं| बड़े-बड़े आदमी खेलते हैं, मूंछो दाढ़ी वाले| और मेमें भी खेलती हैं, सच! हमारी अम्मा को यह दे दो, क्या नाम है, बैट, तो उसे पकड़ ही न सकें| घुमाते ही लुढ़क जाएं|
महमूद ने कहा,‘हमारी अम्मीजान का तो हाथ कांपने लगे, अल्ला कसम|’
मोहसिन बोला,‘चलो, मनों आटा पीस डालती हैं| ज़रा-सा बैट पकड़ लेंगी, तो हाथ कांपने लगेंगे! सैकड़ों घड़े पानी रोज निकालती हैं| पांच घड़े तो तेरी भैंस पी जाती है| किसी मेम को एक घड़ा पानी भरना पड़े, तो आंखों तले अंधेरा आ जाए|’
महमूद,‘लेकिन दौड़ती तो नहीं, उछल-कूद तो नहीं सकतीं|’
मोहसिन,‘हां, उछल-कूद तो नहीं सकतीं; लेकिन उस दिन मेरी गाय खुल गई थी और चौधरी के खेत में जा पड़ी थी, अम्मा इतना तेज़ दौड़ीं कि मैं उन्हें न पा सका, सच|’
आगे चले| हलवाइयों की दुकानें शुरू हुईं| आज ख़ूब सजी हुई थीं| इतनी मिठाइयां कौन खाता है? देखो न, एक-एक दुकान पर मनों होंगी|
‘सुना है, रात को जिन्नात आकर ख़रीद ले जाते हैं| अब्बा कहते थे कि आधी रात को एक आदमी हर दुकान पर जाता है और जितना माल बचा होता है, वह तुलवा लेता है और सचमुच के रुपए देता है, बिल्कुल ऐसे ही रुपए|’
हामिद को यक़ीन न आया,‘ऐसे रुपए जिन्नात को कहां से मिल जाएंगे?’
मोहसिन ने कहा,‘जिन्नात को रुपए की क्या कमी? जिस खज़ाने में चाहे चले जाएं| लोहे के दरवाज़े तक उन्हें नहीं रोक सकते जनाब, आप हैं किस फेर में! हीरे-जवाहरात तक उनके पास रहते हैं| जिससे ख़ुश हो गए, उसे टोकरों जवाहरात दे दिए| अभी यहीं बैठे हैं, पांच मिनट में कलकत्ता पहुंच जाएं|’
हामिद ने फिर पूछा,‘जिन्नात बहुत बड़े-बड़े होते हैं?’
मोहसिन,‘एक-एक सिर आसमान के बराबर होता है जी! ज़मीन पर खड़ा हो जाए तो उसका सिर आसमान से जा लगे, मगर चाहे तो एक लोटे में घुस जाए|’
हामिद,‘लोग उन्हें कैसे ख़ुश करते होंगे? कोई मुझे यह मंतर बता दे तो एक जिन्न को ख़ुश कर लूं|’
मोहसिन,‘अब यह तो मैं नहीं जानता, लेकिन चौधरी साहब के क़ाबू में बहुत-से जिन्नात हैं| कोई चीज़ चोरी जाए चौधरी साहब उसका पता लगा देंगे और चोर का नाम बता देंगे| जुमराती का बछवा उस दिन खो गया था| तीन दिन हैरान हुए, कहीं न मिला तब झख मारकर चौधरी के पास गए| चौधरी ने तुरंत बता दिया, मवेशीखाने में है और वहीं मिला| जिन्नात आकर उन्हें सारे जहान की ख़बर दे जाते हैं|’
अब उसकी समझ में आ गया कि चौधरी के पास क्यों इतना धन है और क्यों उनका इतना सम्मान है|
अब बस्ती घनी होने लगी| ईदगाह जानेवालों की टोलियां नज़र आने लगीं| एक से एक भड़कीले वस्त्र पहने हुए| कोई इक्के-तांगे पर सवार, कोई मोटर पर, सभी इत्र में बसे, सभी के दिलों में उमंग| ग्रामीणों का यह छोटा-सा दल अपनी विपन्नता से बेख़बर, संतोष और धैर्य में मगन चला जा रहा था| बच्चों के लिए नगर की सभी चीज़ें अनोखी थीं| जिस चीज़ की ओर ताकते, ताकते ही रह जाते और पीछे से बार-बार हॉर्न की आवाज़ होने पर भी न चेतते| हामिद तो मोटर के नीचे जाते-जाते बचा|
सहसा ईदगाह नज़र आई| ऊपर इमली के घने वृक्षों की छाया है| नीचे पक्का फ़र्श है, जिस पर जाजम बिछा हुआ है| और रोज़ेदारों की पंक्तियां एक के पीछे एक न जाने कहां तक चली गई हैं, पक्की जगत के नीचे तक, जहां जाजम भी नहीं है|
नमाज ख़त्म हो गई है| लोग आपस में गले मिल रहे हैं| तब मिठाई और खिलौने की दुकान पर धावा होता है| ग्रामीणों का यह दल इस विषय में बालकों से कम उत्साही नहीं है| यह देखो, हिंडोला है एक पैसा देकर चढ़ जाओ| कभी आसमान पर जाते हुए मालूम होगें, कभी जमीन पर गिरते हुए| यह चर्खी है, लकड़ी के हाथी, घोड़े, ऊंट, छड़ों में लटके हुए हैं| एक पैसा देकर बैठ जाओ और पच्चीस चक्करों का मजा लो| महमूद और मोहसिन और नूरे और सम्मी इन घोड़ों और ऊंटों पर बैठते हैं| हामिद दूर खड़ा है| तीन ही पैसे तो उसके पास हैं| अपने कोष का एक तिहाई ज़रा-सा चक्कर खाने के लिए नहीं दे सकता|
सब चर्खियों से उतरते हैं| अब खिलौने लेंगे| इधर दुकानों की कतार लगी हुई है| तरह-तरह के खिलौने हैं-सिपाही और गुजरिया, राजा और वकील, भिश्ती और धोबिन और साधु| वाह! कितने सुंदर खिलौने हैं| अब बोला ही चाहते हैं| महमूद सिपाही लेता है, खाकी वर्दी और लाल पगड़ीवाला, कंधे पर बंदूक रखे हुए, मालूम होता है, अभी कवायद किए चला आ रहा है| मोहसिन को भिश्ती पसंद आया| कमर झुकी हुई है, ऊपर मशक रखे हुए है| मशक का मुंह एक हाथ से पकड़े हुए है| कितना प्रसन्न है! शायद कोई गीत गा रहा है| बस, मशक से पानी उड़ेलना ही चाहता है| नूरे को वक़ील से प्रेम है| कैसी विद्वमता है उसके मुख पर! काला चोगा, नीचे सफ़ेद अचकन, अचकन के सामने की जेब में घड़ी, सुनहरी जंजीर, एक हाथ में क़ानून का पोथा लिए हुए| मालूम होता है, अभी किसी अदालत से जिरह या बहस किए चले आ रहे हैं| यह सब दो-दो पैसे के खिलौने हैं|
हामिद के पास कुल तीन पैसे हैं, इतने महंगे खिलौने वह कैसे ले? खिलौना कहीं हाथ से छूट पड़े तो चूर-चूर हो जाए| ज़रा पानी पड़े तो सारा रंग घुल जाए| ऐसे खिलौने लेकर वह क्या करेगा; किस काम के!
मोहसिन कहता है,‘मेरा भिश्ती रोज पानी दे जाएगा सांझ-सबेरे|’
महमूद,‘और मेरा सिपाही घर का पहरा देगा कोई चोर आएगा, तो फौरन बंदूक से फैर कर देगा|’
नूरे,‘और मेरा वक़ील ख़ूब मुक़दमा लड़ेगा|’
सम्मी,‘और मेरी धोबिन रोज़ कपड़े धोएगी|’
हामिद खिलौनों की निंदा करता है,‘मिट्टी ही के तो हैं, गिरें तो चकनाचूर हो जाएं|’ लेकिन ललचाई हुई आंखों से खिलौनों को देख रहा है और चाहता है कि ज़रा देर के लिए उन्हें हाथ में ले सकता| उसके हाथ अनायास ही लपकते हैं, लेकिन लड़के इतने त्यागी नहीं होते हैं, विशेषकर जब अभी नया शौक़ है| हामिद ललचाता रह जाता है|
खिलौने के बाद मिठाइयां आती हैं| किसी ने रेवड़ियां ली हैं, किसी ने गुलाबजामुन किसी ने सोहन हलवा| मज़े से खा रहे हैं| हामिद बिरादरी से पृथक है| अभागे के पास तीन पैसे हैं| क्यों नहीं कुछ लेकर खाता? ललचाई आंखों से सबकी ओर देखता है|
मोहसिन कहता है,‘हामिद रेवड़ी ले जा, कितनी ख़ुशबूदार है!’
हामिद को संदेह हुआ, ये केवल क्रूर विनोद है, मोहसिन इतना उदार नहीं है, लेकिन यह जानकर भी वह उसके पास जाता है| मोहसिन दोने से एक रेवड़ी निकालकर हामिद की ओर बढ़ाता है| हामिद हाथ फैलाता है| मोहसिन रेवड़ी अपने मुंह में रख लेता है| महमूद, नूरे और सम्मी ख़ूब तालियां बजा-बजाकर हंसते हैं| हामिद खिसिया जाता है|
मोहसिन,‘अच्छा, अबकी ज़रूर देंगे हामिद, अल्लाह कसम, ले जाव|’
हामिद,‘रखे रहो| क्या मेरे पास पैसे नहीं हैं?’
सम्मी,‘तीन ही पैसे तो हैं| तीन पैसे में क्या-क्या लोगे?’
महमूद,‘हमसे गुलाबजामुन ले जाव हामिद| मोहमिन बदमाश है|’
हामिद,‘मिठाई कौन बड़ी नेमत है| किताब में इसकी कितनी बुराइयां लिखी हैं|’
मोहसिन,‘लेकिन दिल में कह रहे होंगे कि मिले तो खा लें| अपने पैसे क्यों नहीं निकालते?’
महमूद,‘हम समझते हैं, इसकी चालाकी| जब हमारे सारे पैसे खर्च हो जाएंगे, तो हमें ललचा-ललचाकर खाएगा|’
मिठाइयों के बाद कुछ दुकानें लोहे की चीज़ों की, कुछ गिलट और कुछ नकली गहनों की| लड़कों के लिए यहां कोई आकर्षण न था| वे सब आगे बढ़ जाते हैं, हामिद लोहे की दुकान पर रुक जाता है| कई चिमटे रखे हुए थे| उसे ख़्याल आया, दादी के पास चिमटा नहीं है| तवे से रोटियां उतारती हैं, तो हाथ जल जाता है| अगर वह चिमटा ले जाकर दादी को दे दे तो वह कितना प्रसन्न होंगी! फिर उनकी उंगलियां कभी न जलेंगी| घर में एक काम की चीज़ हो जाएगी| खिलौने से क्या फ़ायदा? व्यर्थ में पैसे ख़राब होते हैं| ज़रा देर ही तो ख़ुशी होती है| फिर तो खिलौने को कोई आंख उठाकर नहीं देखता| यह तो घर पहुंचते-पहुंचते टूट-फूट बराबर हो जाएंगे या छोटे बच्चे जो मेले में नहीं आए हैं ज़िद करके ले लेंगे और तोड़ डालेंगे| चिमटा कितने काम की चीज़ है| रोटियां तवे से उतार लो, चूल्हें में सेंक लो| कोई आग मांगने आए तो चटपट चूल्हे से आग निकालकर उसे दे दो| अम्मा बेचारी को कहां फ़ुरसत है कि बाजार आएं और इतने पैसे ही कहां मिलते हैं? रोज़ हाथ जला लेती हैं|’
हामिद के साथी आगे बढ़ गए हैं| सबील पर सब-के-सब शर्बत पी रहे हैं| देखो, सब कितने लालची हैं| इतनी मिठाइयां लीं, मुझे किसी ने एक भी न दी| उस पर कहते है, मेरे साथ खेलो| मेरा यह काम करो| अब अगर किसी ने कोई काम करने को कहा, तो पूछूंगा| खाएं मिठाइयां, आप मुंह सड़ेगा, फोड़े-फुन्सियां निकलेंगी, आप ही जबान चटोरी हो जाएगी| तब घर से पैसे चुराएंगे और मार खाएंगे| किताब में झूठी बातें थोड़े ही लिखी हैं| मेरी जबान क्यों ख़राब होगी? अम्मा चिमटा देखते ही दौड़कर मेरे हाथ से ले लेंगी और कहेंगी,‘मेरा बच्चा अम्मा के लिए चिमटा लाया है| कितना अच्छा लड़का है|’ इन लोगों के खिलौने पर कौन इन्हें दुआएं देगा? बड़ों की दुआएं सीधे अल्लाह के दरबार में पहुंचती हैं, और तुरंत सुनी जाती हैं| मेरे पास पैसे नहीं हैं| तभी तो मोहसिन और महमूद यों मिजाज दिखाते हैं| मैं भी इनसे मिजाज दिखाऊंगा| खेलें खिलौने और खाएं मिठाइयां| मैं नहीं खेलता खिलौने, किसी का मिजाज क्यों सहूं? मैं ग़रीब सही, किसी से कुछ मांगने तो नहीं जाता| आख़िर अब्बाजान कभी न कभी आएंगे| अम्मा भी आएंगी ही| फिर इन लोगों से पूछूंगा, कितने खिलौने लोगे? एक-एक को टोकरियों खिलौने दूं और दिखा दूं कि दोस्तों के साथ इस तरह का सलूक किया जाता है| यह नहीं कि एक पैसे की रेवड़ियां लीं, तो चिढ़ा-चिढ़ाकर खाने लगे| सबके सब ख़ूब हंसेंगे कि हामिद ने चिमटा लिया है| हंसें! मेरी बला से|
उसने दुकानदार से पूछा,‘यह चिमटा कितने का है?’
दुकानदार ने उसकी ओर देखा और कोई आदमी साथ न देखकर कहा,‘तुम्हारे काम का नहीं है जी!’
‘बिकाऊ है कि नहीं?’
‘बिकाऊ क्यों नहीं है? और यहां क्यों लाद लाए हैं?’
‘तो बताते क्यों नहीं, कै पैसे का है?’
‘छ: पैसे लगेंगे|’
हामिद का दिल बैठ गया।
‘ठीक-ठीक पांच पैसे लगेंगे, लेना हो लो, नहीं चलते बनो|’
हामिद ने कलेजा मज़बूत करके कहा,‘तीन पैसे लोगे?’
यह कहता हुआ वह आगे बढ़ गया कि दुकानदार की घुड़कियां न सुने| लेकिन दुकानदार ने घुड़कियां नहीं दी| बुलाकर चिमटा दे दिया|
हामिद ने उसे इस तरह कंधे पर रखा, मानो बंदूक है और शान से अकड़ता हुआ संगियों के पास आया| ज़रा सुनें, सबके सब क्या-क्या आलोचनाएं करते हैं!
मोहसिन ने हंसकर कहा,‘यह चिमटा क्यों लाया पगले, इसे क्या करेगा?’
हामिद ने चिमटे को ज़मीन पर पटककर कहा,‘ज़रा अपना भिश्ती ज़मीन पर गिरा दो| सारी पसलियां चूर-चूर हो जाएंगी बच्चू की|’
महमूद बोला,‘तो यह चिमटा कोई खिलौना है?’
हामिद,‘खिलौना क्यों नहीं है! अभी कंधे पर रखा, बंदूक हो गई| हाथ में ले लिया, फकीरों का चिमटा हो गया| चाहूं तो इससे मजीरे का काम ले सकता हूं| एक चिमटा जमा दूं, तो तुम लोगों के सारे खिलौनों की जान निकल जाए| तुम्हारे खिलौने कितना ही ज़ोर लगाएं, मेरे चिमटे का बाल भी बांका नहीं कर सकते| मेरा बहादुर शेर है चिमटा|’
सम्मी ने खंजरी ली थी| प्रभावित होकर बोला,‘मेरी खंजरी से बदलोगे? दो आने की है|’
हामिद ने खंजरी की ओर उपेक्षा से देखा,‘मेरा चिमटा चाहे तो तुम्हारी खंजरी का पेट फाड़ डाले| बस, एक चमड़े की झिल्ली लगा दी, ढब-ढब बोलने लगी| ज़रा-सा पानी लग जाए तो ख़त्म हो जाए| मेरा बहादुर चिमटा आग में, पानी में, आंधी में, तूफ़ान में बराबर डटा खड़ा रहेगा|’
चिमटे ने सभी को मोहित कर लिया, अब पैसे किसके पास धरे हैं? फिर मेले से दूर निकल आए हैं, नौ कब के बज गए, धूप तेज हो रही है| घर पहुंचने की जल्दी हो रही है| बाप से ज़िद भी करें, तो चिमटा नहीं मिल सकता| हामिद है बड़ा चालाक| इसीलिए बदमाश ने अपने पैसे बचा रखे थे|
अब बालकों के दो दल हो गए हैं| मोहसिन, महमूद, सम्मी और नूरे एक तरफ़ हैं, हामिद अकेला दूसरी तरफ़| शास्त्रार्थ हो रहा है| सम्मी तो विधर्मी हो गया! दूसरे पक्ष से जा मिला, लेकिन मोहसिन, महमूद और नूरे भी हामिद से एक-एक, दो-दो साल बड़े होने पर भी हामिद के आघातों से आतंकित हो उठे हैं| उसके पास न्याय का बल है और नीति की शक्ति| एक ओर मिट्टी है, दूसरी ओर लोहा, जो इस वक़्त अपने को फ़ौलाद कह रहा है| वह अजेय है, घातक है| अगर कोई शेर आ जाए तो मियां भिश्ती के छक्के छूट जाएं, मियां सिपाही मिट्टी की बंदूक छोड़कर भागें, वक़ील साहब की नानी मर जाए, चोगे में मुंह छिपाकर ज़मीन पर लेट जाएं| मगर यह चिमटा, यह बहादुर, यह रूस्तमे-हिंद लपककर शेर की गरदन पर सवार हो जाएगा और उसकी आंखें निकाल लेगा|’
मोहसिन ने एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाकर कहा,‘अच्छा, पानी तो नहीं भर सकता?’
हामिद ने चिमटे को सीधा खड़ा करके कहा,‘भिश्ती को एक डांट बताएगा, तो दौड़ा हुआ पानी लाकर उसके द्वार पर छिड़कने लगेगा|’
मोहसिन परास्त हो गया, पर महमूद ने कुमुक पहुंचाई,‘अगर बच्चा पकड़ जाएं तो अदालत में बंधे-बंधे फिरेंगे| तब तो वक़ील साहब के पैरों पड़ेंगे|’
हामिद इस प्रबल तर्क का जवाब न दे सका| उसने पूछा,‘हमें पकड़ने कौन आएगा?’
नूरे ने अकड़कर कहा,‘यह सिपाही बंदूकवाला|’
हामिद ने मुंह चिढ़ाकर कहा,‘यह बेचारे हम बहादुर रूस्तमे-हिंद को पकड़ेंगे! अच्छा लाओ, अभी ज़रा कुश्ती हो जाए| इसकी सूरत देखकर दूर से भागेंगे| पकड़ेंगे क्या बेचारे!’
मोहसिन को एक नई चोट सूझ गई,‘तुम्हारे चिमटे का मुंह रोज़ आग में जलेगा|’
उसने समझा था कि हामिद लाजवाब हो जाएगा, लेकिन यह बात न हुई| हामिद ने तुरंत जवाब दिया,‘आग में बहादुर ही कूदते हैं जनाब, तुम्हारे यह वक़ील, सिपाही और भिश्ती लौंडियों की तरह घर में घुस जाएंगे| आग में कूदना वह काम है, जो यह रुस्तमे-हिन्द ही कर सकता है|’
महमूद ने एक ज़ोर लगाया,‘वक़ील साहब कुरसी-मेज पर बैठेंगे, तुम्हारा चिमटा तो बावरचीखाने में ज़मीन पर पड़ा रहेगा|’
इस तर्क ने सम्मी और नूरे को भी सजीव कर दिया! ‘कितने ठिकाने की बात कही है पट्ठे ने! चिमटा बावरचीखाने में पड़ा रहने के सिवा और क्या कर सकता है?’
हामिद को कोई फड़कता हुआ जवाब न सूझा, तो उसने धांधली शुरू की,‘मेरा चिमटा बावरचीखाने में नहीं रहेगा| वक़ील साहब कुर्सी पर बैठेंगे, तो जाकर उन्हें ज़मीन पर पटक देगा और उनका क़ानून उनके पेट में डाल देगा|’
बात कुछ बनी नहीं| ख़ासी गाली-गलौज थी; लेकिन क़ानून को पेट में डालने वाली बात छा गई| ऐसी छा गई कि तीनों सूरमा मुंह ताकते रह गए मानो कोई धेलचा कनकौआ किसी गंडेवाले कनकौए को काट गया हो| क़ानून मुंह से बाहर निकलने वाली चीज़ है| उसको पेट के अंदर डाल दिया जाना बेतुकी-सी बात होने पर भी कुछ नयापन रखती है| हामिद ने मैदान मार लिया| उसका चिमटा रुस्तमे-हिन्द है| अब इसमें मोहसिन, महमूद नूरे, सम्मी किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती|
विजेता को हारनेवालों से जो सत्कार मिलना स्वाभाविक है, वह हामिद को भी मिला| औरों ने तीन-तीन, चार-चार आने पैसे ख़र्च किए, पर कोई काम की चीज़ न ले सके| हामिद ने तीन पैसे में रंग जमा लिया| सच ही तो है, खिलौनों का क्या भरोसा? टूट-फूट जाएंगे| हामिद का चिमटा तो बना रहेगा बरसों?
संधि की शर्तें तय होने लगीं| मोहसिन ने कहा,‘ज़रा अपना चिमटा दो, हम भी देखें| तुम हमारा भिश्ती लेकर देखो|’
महमूद और नूरे ने भी अपने-अपने खिलौने पेश किए|
हामिद को इन शर्तों को मानने में कोई आपत्ति न थी| चिमटा बारी-बारी से सबके हाथ में गया, और उनके खिलौने बारी-बारी से हामिद के हाथ में आए| कितने ख़ूबसूरत खिलौने हैं|
हामिद ने हारनेवालों के आंसू पोंछे,‘मैं तुम्हें चिढ़ा रहा था, सच! यह चिमटा भला, इन खिलौनों की क्या बराबरी करेगा, मालूम होता है, अब बोले, अब बोले|’
लेकिन मोहसिन की पार्टी को इस दिलासे से संतोष नहीं होता| चिमटे का सिक्का ख़ूब बैठ गया है| चिपका हुआ टिकट अब पानी से नहीं छूट रहा है|
मोहसिन,‘लेकिन इन खिलौनों के लिए कोई हमें दुआ तो न देगा?’
महमूद,‘दुआ को लिए फिरते हो| उल्टे मार न पड़े| अम्मा ज़रूर कहेंगी कि मेले में यही मिट्टी के खिलौने मिले?’
हामिद को स्वीकार करना पड़ा कि खिलौनों को देखकर किसी की मां इतनी ख़ुश न होंगी, जितनी दादी चिमटे को देखकर होंगी| तीन पैसों ही में तो उसे सब कुछ करना था ओर उन पैसों के इस उपयोग पर पछतावे की बिल्कुल ज़रूरत न थी| फिर अब तो चिमटा रुस्तमें-हिन्द है ओर सभी खिलौनों का बादशाह|
रास्ते में महमूद को भूख लगी| उसके बाप ने केले खाने को दिए| महमूद ने केवल हामिद को साझी बनाया| उसके अन्य मित्र मुंह ताकते रह गए| यह उस चिमटे का प्रसाद था|
ग्यारह बजे गांव में हलचल मच गई| मेलेवाले आ गए| मोहसिन की छोटी बहन ने दौड़कर भिश्ती उसके हाथ से छीन लिया और मारे ख़ुशी के जा उछली, तो मियां भिश्ती नीचे आ रहे और सुरलोक सिधारे| इस पर भाई-बहन में मार-पीट हुई| दोनों ख़ूब रोए| उनकी अम्मा यह शोर सुनकर बिगड़ीं और दोनों को ऊपर से दो-दो चांटे और लगाए|
मियां नूरे के वक़ील का अंत उनके प्रतिष्ठानुकूल इससे ज़्यादा गौरवमय हुआ| वक़ील ज़मीन पर या ताक पर तो नहीं बैठ सकता| उसकी मर्यादा का विचार तो करना ही होगा| दीवार में खूंटियां गाड़ी गई| उन पर लकड़ी का एक पटरा रखा गया| पटरे पर कागज का कालीन बिछाया गया| वक़ील साहब राजा भोज की भांति सिंहासन पर विराजे| नूरे ने उन्हें पंखा झलना शुरू किया| अदालतों में खस की टट्टियां और बिजली के पंखे रहते हैं| क्या यहां मामूली पंखा भी न हो! क़ानून की गर्मी दिमाग़ पर चढ़ जाएगी कि नहीं? बांस का पंखा आया और नूरे हवा करने लगे| मालूम नहीं, पंखे की हवा से या पंखे की चोट से वकील साहब स्वर्गलोक से मृत्युलोक में आ रहे और उनका माटी का चोला माटी में मिल गया! फिर बड़े ज़ोर-शोर से मातम हुआ और वक़ील साहब की अस्थि घूरे पर डाल दी गई|
अब रहा महमूद का सिपाही| उसे चटपट गांव का पहरा देने का चार्ज मिल गया, लेकिन पुलिस का सिपाही कोई साधारण व्यक्ति तो नहीं, जो अपने पैरों चलें| वह पालकी पर चलेगा| एक टोकरी आई, उसमें कुछ लाल रंग के फटे-पुराने चिथड़े बिछाए गए, जिसमें सिपाही साहब आराम से लेटे| नूरे ने यह टोकरी उठाई और अपने द्वार का चक्कर लगाने लगे| उनके दोनों छोटे भाई सिपाही की तरह 'छोनेवाले, जागते लहो' पुकारते चलते हैं| मगर रात तो अंधेरी ही होनी चाहिए| महमूद को ठोकर लग जाती है| टोकरी उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ती है और मियां सिपाही अपनी बन्दूक लिए ज़मीन पर आ जाते हैं और उनकी एक टांग में विकार आ जाता है|
महमूद को आज ज्ञात हुआ कि वह अच्छा डॉक्टर है| उसको ऐसा मरहम मिला गया है जिससे वह टूटी टांग को आनन-फानन जोड़ सकता है| केवल गूलर का दूध चाहिए| गूलर का दूध आता है| टांग जवाब दे देती है| शल्य-क्रिया असफल हुई, तब उसकी दूसरी टांग भी तोड़ दी जाती है| अब कम-से-कम एक जगह आराम से बैठ तो सकता है| एक टांग से तो न चल सकता था, न बैठ सकता था| अब वह सिपाही संन्यासी हो गया है| अपनी जगह पर बैठा-बैठा पहरा देता है| कभी-कभी देवता भी बन जाता है| उसके सिर का झालरदार साफा खुरच दिया गया है| अब उसका जितना रूपांतर चाहो, कर सकते हो| कभी-कभी तो उससे बाट का काम भी लिया जाता है|
अब मियां हामिद का हाल सुनिए| अमीना उसकी आवाज़ सुनते ही दौड़ी और उसे गोद में उठाकर प्यार करने लगी| सहसा उसके हाथ में चिमटा देखकर वह चौंकी|
‘यह चिमटा कहां था?’
‘मैंने मोल लिया है|’
‘कै पैसे में?’
‘तीन पैसे दिए|’
अमीना ने छाती पीट ली| यह कैसा बेसमझ लड़का है कि दोपहर हुआ, कुछ खाया न पिया| लाया क्या, चिमटा!
‘सारे मेले में तुझे और कोई चीज़ न मिली, जो यह लोहे का चिमटा उठा लाया?’
हामिद ने अपराधी भाव से कहा,‘तुम्हारी उंगलियां तवे से जल जाती थीं, इसलिए मैंने इसे लिया|’
बुढ़िया का क्रोध तुरंत स्नेह में बदल गया, और स्नेह भी वह नहीं, जो प्रगल्भ होता है और अपनी सारी कसक शब्दों में बिखेर देता है| यह मूक स्नेह था, ख़ूब ठोस, रस और स्वाद से भरा हुआ| बच्चे में कितना त्याग, कितना सद्भाव और कितना विवेक है! दूसरों को खिलौने लेते और मिठाई खाते देखकर इसका मन कितना ललचाया होगा? इतना जब्त इससे हुआ कैसे? वहां भी इसे अपनी बुढ़िया दादी की याद बनी रही| अमीना का मन गद्गद् हो गया|
और अब एक बड़ी विचित्र बात हुई| हामिद के इस चिमटे से भी विचित्र| बच्चे हामिद ने बूढ़े हामिद का पार्ट खेला था| बुढ़िया अमीना बालिका अमीना बन गई| वह रोने लगी| दामन फैलाकर हामिद को दुआएं देती जाती थी और आंसू की बड़ी-बड़ी बूंदें गिराती जाती थी| हामिद इसका रहस्य क्या समझता!