
प्रार्थना की उस सुबह,
जब सूरज भी आँखें मले रहा था,
सामने की कतार में खड़ी एक लड़की—
‘पुष्पांजलि’—
जैसे नाम नहीं,
किसी बंद खिड़की से आई
बसंती हवा थी।
न जाने क्यों, उस पल
समय थम-सा गया,
और मेरा दिल—
जो अब तक बस धड़कता था,
पहली बार किसी के लिए
धड़कने लगा।
हर रिसेस, हर छुट्टी,
स्कूल की घंटियों के बीच,
मैं सिर्फ उसकी
एक झलक का तलबगार हो गया था।
दरवाज़े की ओट से,
कभी लाइब्रेरी की परछाईं से,
उसकी मुस्कान चुपके से
मेरे भीतर उतरती थी।
मैंने जान लिया था सब—
उसका नाम, उसका सेक्शन,
यहाँ तक कि उसके जूड़े में
कितने पिन होते हैं हर दिन।
पर नहीं जानता था,
कैसे कहूँ दिल की बात।
कई बार क़लम उठाई,
काग़ज़ पर दिल रखा,
पर हर बार शब्द डर से हार जाते।
एक प्रेम-पत्र लिखा,
जैसे किसी अंतर्द्वंद्व को
स्याही से बोया हो।
एक दिन,
छुट्टी के बाद,
जब सब अपने बस्ते समेट रहे थे,
मैंने धीमे से पुकारा—
"पुष्पांजलि... ज़रा सुनो..."
वो पलटी,
और पहली बार हमारे बीच
वक़्त नहीं, सिर्फ़ नज़रें थीं।
मैंने काँपते हाथों से
वो काग़ज़ थमाया
जैसे अपना नाम थमा रहा हूँ।
और फिर,
भाग आया
जैसे बचपन से बाहर निकल आया हूँ।
दो दिन तक स्कूल से ग़ायब रहा—
सोचा था, दुनिया हँसेगी,
या वो इंकार करेगी।
तीसरे दिन,
सब कुछ वैसा ही था—
कोई बच्चा हँसा नहीं मुझ पर,
न ही टीचर को कोई कम्प्लेन।
पर वो नहीं दिखी।
न उस दिन,
न अगले कई दिन।
फिर किसी ने कहा—
उसके पिता का ट्रांसफ़र हो गया है।
और वो…
चली गई है।
बस ऐसे ही
मेरी पहली कविता
अधूरी रह गई,
पढ़े बिना,
समझे बिना।
आज बरसों बाद,
जब किसी अनजाने नाम की चिट्ठी आती है,
या किसी किताब के आख़िरी पन्ने से
कोई गुलाब गिरता है,
तो वही एक मुस्कान
मन के किसी कोने से
धीरे से झाँकती है।
क्योंकि अधूरी प्रेम कहानियाँ
ख़त्म नहीं होतीं—
वो बस, उम्र के किसी पुराने चैप्टर में
बुकमार्क बनकर रह जाती हैं।