ऐ जिस्त बेमुकद्दर
मेरे दिल को धड़कना सिखा दे,
वर्षों से थमे हैं पलकों में जो ,
उन अस्कों को बहना सिखा दे ।
और सिखा दे मुझको रीत इस जहाँ की,
मुर्दों की इस बस्ती में, मुझको
खुद से लड़ना सिखा दे ।
जल रहा जो, वो भी इक चिता है
महसूस होता जिसे दहकता अंगार नहीं ।
है धड़कना बेमानी उसका
जिस दिल से रिसता प्यार नहीं।
सूखे उन रगों में अब
शोला सा कुछ खूं बहा दे ।
सुलगाकर पत्थर को भी जो,
बनाकर आँसू आँखों से बहा दे ।
दे गीत आज़ादी के,
मूक स्वरों को उन्मुक्त चहकना सिखा दे।
और दे पंख सपनों की,
उन जिस्मों को उड़ना सिखा दे ।