भीड़

इस ख़ामोश भीड़ में,
जाने जकड़े कैसी ज़ंज़ीर में,
भावशून्य चेहरों पर अनकही व्यथा है,
हर सीने में शैलाब , हर अधर पर एक कथा है ।

कुछ मिज़ाज़ लोगों के अलग से,
कुछ तेज़ कदम डगमग से ,
आँखों में ना अश्क, ना रुसवाई है ,
है आबाद शहर सारा, पर मरघट की परछाई है ।


किसपर लिखूँ गीत अपने,
किसके देखूँ मैं सपने,
इस रात में ना दर्द , ना गहराई है ,
चाँद तेरे चेहरे पर भी, खामोशी ही छाई है ।


तारीख: 06.06.2017                                    जय कुमार मिश्रा









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