वक़्त के साथ तुम बुढ़ा जाओगी
छोटी छोटी बातों पर कुढा जाओगी
घुटने कभी कभी सीढियों से हार जाएगें
खुली पलकों के दृश्य इक सीमा के ना पार जाएंगे
जब मीठे को ये डॉक्टर खारा कह चुके होंगे
क्या तब भी इतनी मीठी रह पाओगी
क्या तब भी खिलखिला के यूँ ही मुस्कुरा पाओगी...
एकांत का पर्याय जब नितांत हो जाएगा
गलतियां किसी पर थोपना असंभ्रांत हो जाएगा
निद्रा जब ना इन आँखों की दास रह जाएगी
शब्दों की कीमत मौन समक्ष उपहास रह जाएगी
जब संतों-बाबाओं मैं निमग्न हो जाओगी
क्या तब भी अपने इस बाबा को बाबू बुलाओगी
क्या तब भी चुलबुलेपन को जवां रख पाओगी...
जब बच्चे अपनी उड़ानों के आयाम पर होंगे
दादा-दादी वाले ओहदे अपने नाम पर होंगे
बाद रिटायरमेंट, जब बेरोजगारों में अपना नाम होगा
तुझे देखने के अलावा मुझे ना कोई काम होगा
क्या तब भी तुम मुझे "सुनिए जी" बुलाओगी
या तब भी "मान जाओ ना" कहके हाथ छुड़ाओगी
क्या तब भी तुम यूँ ही शर्म से लजा पाओगी...
जब जीवन जिजीविषा इक युद्ध सी होगी
धमनियों में रक्त गति कुछ अवरुद्ध सी होगी
जब साँसों की डोरी इक दूजे की मोहताज़ हो चलेगी
चेहरे की मखमली झुर्रियां ही हमारा ताज हो चलेंगी
जब तमाम अनुभव सम्पूर्ण होने को होंगे
क्या तब भी तुम अपने हमसफर पर इतराओगी
क्या तब भी तुम अपने सफर के गीत गुनगुनाओगी...
मेरी प्रियतमा...चलो फिर से वादा करते हैं...
ताउम्र किया है, आओ अब कुछ ज्यादा करते हैं
जीवन के तीनों आयामों में हम हमसाया बन चल रहे हैं
और अब वक्त के पांचवे आयाम से निकल रहे हैं...
अब जब जीवन वृक्ष की जड़ें उखड़ने की राह पर हैं...
तो आओ यादों के फूलों से फिर प्रेम की सेज सजाते हैं
और अपनी मोहब्बत से इस फिसलती रेत को जीभ चिढ़ाते हैं...