धूप और तुम

धूप नित्य आती है।
खिड़कियों,
पर्दों,
दरवाजों के बाहर
मेरी अनभिज्ञता में ही।

महामौन,
महाधैर्य,
महाशांति ओढ़े हुए 
होती रहती है एकत्रित ।

निर्दोष, 
सुनहरी,
नमकीन ,धूप !! 
मेरे रास्ता देते ही
बाढ़ सी  आ जाती है 
पर चुप,
पर ऊष्म ।

उपस्थिति
अटल है धूप की 
है आना जाना रोज का उस का ।

छत पर अचार डल रहा हो , 
रोड पर प्रचार चल रहा हो 
मन  मे विचार ढल रहा हो , 
धूप पसरी रहती है।

नाच गाना 
सुख-दुख
जीवन-मरण
शाश्वत सत्य की भाँती
मेरे पास बैठी मिलती है ।

मैं  पुकारुँ न पुकारुँ 
देखूँ न देखूँ 
भोगूँ न भोगूँ 
वह है 
रहती है।

लेकिन प्रिये
हो तुम भी तो कुछ वैसी ही 
धूप जैसी
हाँ आती हो
वैसे ही रहती भी 
तुम्हारा प्रेम भी तो 
शाश्वत
बालहट सा स्थिर 
मौन,

धीर।


साथ में तुम हो
धूप हो 
तो मेरा ध्यान रखना 
कहीं मे मर ना जाउँ
प्रेम और स्थिरता के संगम से ।


तारीख: 05.06.2017                                    पुष्पेंद्र पाठक









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