घाटी का चक्रव्यूह

अंजनी सूत शस्त्र उठा,  कब तक बल भूला बैठेगा
रक्तरंजित ये केसर भूमि,  मांग रही तूझसे यलगार
 
उन्मादों को दे आवाह्न,  अन्यथा ये इतिहास हंसेगा
अब कैसी क्षमाशीलता, है याचक के हाथों तलवार
 
त्याग असंज्ञता-हो निश्शंक, दरिया तीट लांघ चूका 
पत्थर आगे गांडिव झूके, है अपमानित खुद संहार
 
दूध कहीं लजा ना जाये,  आक्षेप कोई ना लग पाये
संयम लगने लगा कायरता, मुक्तकंठ से दे ललकार
 
जल के संग जल, बन दावानल तूं अग्नि अनल संग
रण में रण ही शोभित होता,  यही ज्ञान जाने संसार
 
कलम मूझे है चूभने लगी,  बोझ लगे मेरे शब्द सभी
जार जार है चारण चीखे, पृथ्वीराज अब भर हूंकार 
 


तारीख: 04.07.2017                                                        उत्तम दिनोदिया






नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है