धूल-सने इतिहास के हजारों पन्नों पर,
अनगिनत गाथाएँ दर्ज हैं—
राजाओं, रणबांकुरों, विजेताओं की,
पर कहीं एक शब्द नहीं
उन घोड़ों के लिए,
जिन्होंने अनगिन मील पार किए,
जंगलों, नदियों, पर्वतों को
अपनी निर्दोष दृढ़ता से लाँघकर
अपरिचित धरती की चुप्पी भंग की।
वे घोड़े, जिनके नाम किसी पुस्तक में नहीं,
जिनके माथे किसी विजय-मुकुट ने नहीं सजाया।
उनकी पीठ पर बैठे
तलवारों के शोर में डूबे
लालची मनुष्यों ने
लिखी अपनी जयगाथाएँ—
स्याही थी रक्तरंजित,
और मिट गए कई नगर, ग्राम, सभ्यताएँ
उन ऐतिहासिक कल्पनाओं की धार में।
हर कदम के साथ
घोड़ों ने ढोया वह बोझ,
वह स्वप्न जो उनका कभी था ही नहीं,
वह भूख जो मनुष्यों की थी,
पर घोड़े तो बस चलते गए,
अनकही धूप और धूल को सहते हुए,
हर नयी नदी को पार करते हुए।
क्या कभी किसी ने सोचा
उन आँखों के भीतर के प्रश्नों के बारे में?
क्या उन घोड़ों को भी लगता होगा
कि यह यात्रा उनके हिस्से की नहीं,
कि वे महज़ एक साधन हैं
उन मानव-महत्वाकांक्षाओं का
जो तलवार के प्रहार से
इतिहास रचती रहीं?
लेकिन घोड़ों की आँखों में,
एक मौन विद्रोह है—
एक अनकहा सत्य,
जो मनुष्य के न खत्म होने वाले लालच को
ठंडी नज़र से देखता है।
खुरों की थाप हर पल याद दिलाती है
कि असली संघर्ष उनका था—
अनाम, अदृश्य होते हुए भी
वे धरती पर अपनी अमिट छाप छोड़ते गए।
इतिहास के हाशिये पर
उनकी गाथा गूँजती है—
बिना किसी शब्द के,
काग़ज़ पर दर्ज न होने पर भी
सच्चाई के हर टुकड़े में रची-बसी,
जहाँ उनके खुरों ने
मौन दस्तावेज़ बनाए।
वे घोड़े,
जो कभी सिकंदर नहीं बने,
न राजा बने,
पर जिनकी पीठों पर टिका रहा
पूरा इतिहास—
एक इतिहास,
जो लालच के आवेश में लिखा गया।
और असली विजेता तो वही हैं,
जो बिना नाम, बिना शोर
चलते रहे,
पर्वत, नदी, जंगल लांघते,
अपने खुरों की गूँज से
धरती को जगाते हुए।