आंखों से क्या छुपा कभी है,
बनी पुतलियां यादों का झरना
क्याव्यथित सिसकियां सिखलाती हैं
आंसू पी जिंदा रहकर मरना।
आती ख्वाब समेटे मधुर छवि वो
पल-पल गायब क्यों हो जाती वो।
कहती जो दिवा स्वप्न से बाहर आजा,
बूढ़ी दादी सा पाठ पढ़ाती वो।
"वो भीतर गर जो तेज है जागा,
आसमां ज़मीं पर है आ जाएगा।
ले आग़ोश में शीतल चंदा को,
सूरज को पानी-पानी कर इतराएगा।"
तलवारें जरा और चमकीली कर,
शौर्य दिखाना शोहरत है अब,
बंद म्यान में पड़ी रही जो
द्विधारी भी तो गैरत है अब।
चंद पलों में कर आसमां मुट्ठी में,
वह 'छवि' कहाँ गुम हो जाती है।
'रुक मत! न देरी कर अब तू'
जाते-जाते यह कह जाती है।
सुनने को कर्ण अतृप्त दो लफ़्ज़ों के,
पर आहट कोई क्यों न आती है।
जो आगोश में लिए थी जेहन को अब तक,
जाने कहाँ पे गुम हो जाती है।
तन अशांत मन में दावानल,
खीझती नसें मस्तक की है अब।
उठते हैं जो कदम वो दूभर,
पग-पग चुभते खंजर अब।
सिखा दूं कैसे अब चुप रहना,
न भरे रिदय क्यों आहें अब?
क्यों बाहर जीना, भीतर मरना
हो आग लगी जेहन में जब!