लम्हा वो एक याद रहा!

ख्वाब में आती चित्त लुभाती,
चमक चमक कर धुंधली हो जाती,
लंबा अरसा बीता है पर,
लम्हा वो एक याद रहा।

उठा है रातों ख्वाब समेटे,
रुक जाए जो दो पल ही
आंख खुली तो टूट गया पर
सपना वो एक याद रहा।

नादानी थी या था भोलापन,
ल् छोटी कश्ती नदी पर करने चला।
वो लहर की शंका में था एक भंवर तूफानी,
क्यों पतवार लिए में खड़ा रहा।


थी रोशनी जो चकाचौंध करे,
परवाना मिटने बढ़ता रहा।
भयभीत बिल्कुल न था लौ से फिर भी,
तिमिर से जल-जल लड़ता रहा।

राह भी निराली और मंज़िल भी,
थोड़ा-सा मन बावला और जरा सा दिल भी।
पर सांसों में क्या जहर छुपा है,
लब भी अब खामोश जरा, और जरं सी मंज़िल भी।

क्या होता जो तुम होते वहां अब,
बेगाने से अपनेपन के सागर में,
खुद को कहां डुबोते अब,
थमी है कश्ती, पतवार लिए बिलखता रब!

जागीरों से भरा है अनुभव,
लिए समेटे एक-एक मोती,
अनगढ़ कुरूप विचित्र है काया,
इंतेज़ार रहा जो इसे पिरोती,
कुछ तो बोलो, बोलो कुछ! हे महामाया!


तारीख: 17.12.2017                                    राम निरंजन रैदास









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