न कुछ नया होगा
नववर्ष गुजर गया है जो
कैसै बंया करें
लुटी थी कहीं पर आबरू
किसी का बचपन
कहीं पर गुमनाम हुआ था
फिर कैसा नववर्ष, कैसा हर्ष
फिर वही पुरानी दूषित सोच होगी
वही पुराना दूषित नजरिया होगा ।
ये कैसी खुशी, कैसा भ्रम है
अंको ने चोला ही तो बदला है
इंसान तो वहीं लकीर का फकीर बना बैठा है
ख्वाहिशो का पंछी थकता नहीं
एक बूंद से गुजारा करता नहीं
इंसान बताओ कहां बदला है
न कुछ नया होगा
फिर वही गिरना-गिराना होगा
अच्छाई कम से कम एक कोस
बुराई को दूर तक साथ ले जाना होगा
स्वयं की ख्वाहिशो के लिए
न जाने कितनो को रूलाना होगा ।
बदलना है तो स्वयं को बदलो
खिलाने हैं फूल प्रत्येक डगर पर
ये सोचकर घर से निकलो
मत जलाना दहेज के लिए
किसी की लाडली का आंचल
उस आंचल में खुशी के फूल खिलाना
किनारे कर दुश्मनी का मंजर
दुश्मन को भी गले लगाना
करना मात् पिता का सम्मान
स्वयं के उपर करके एहसान
कर सको अगर ऐसा
तो प्रत्येक दिन नववर्ष होगा
वर्ना न कुछ नया होगा
मेरी नज़र में तो फिर
आपका नाम और पता
कहीं गुमनाम होगा ।