सुबह से शाम सतत कर्म कर
अपेक्षित फल की प्राप्ति न होने पर उदास होता हूँ,
नर हूँ, निराश होता हूँ।
सुबह सूरज को फलक पर आता देख
मैं भी उठ खड़ा होता हूं,
लक्ष्य को सामने रख
फिर दौड़ना शुरू करता हूं।
शाम तक लक्ष्य न मिलने पर
थक कर उदास होता हूँ,
नर हूँ, निराश होता हूँ।
आशा - निराशा का यह द्वंद - चक्र
मसलसल चलता रहता है,
कभी आशा जीतती है, कभी निराशा
पर फिर भी, मैं जीता हूं, उम्मीद में
कि कल तो बेहतर होगा।
वो कल अभी तक तो आया नहीं,
पर उम्मीद है कि टूटती नहीं,
उम्मीद टूट जाएगी, तो कोई विकल्प भी नहीं,
विकल्प ही नहीं !
मुझु उम्मीद बनाये रखते हुये,
चित्त को शांत रखते हुये
दौड़ना होगा प्रतिदिन,
अपने आज को बेहतर बनाने के लिये।
मेरा आज बेहतर होगा, तो कल भी बेहतर होगा।
नर हूँ, निराश होता हूँ, पर लम्बे समय के लिये नहीं,
जल्दी ही आशान्वित होकर फिर चल पड़ता हूँ।
मगर हां, यह सच है कि नर हूँ, निराश होता हूँ।