मुझे तेरी हकीकत का पता है

मुझे तेरी हकीकत का पता है,
ज़माने मुझसे छिपाता क्या है,
मुझे तेरी हकीकत का पता है।

कियें हैं ज़ुल्म तूने ओट में कितने नकाबों के,
शरीफ़ी के नकाबों से गुनाहों को छिपता क्या है,

कभी मज़हब कभी शरहद के नामों पे तबाही की,
निशानी ज़ख़्म की देकर निशानों को मिटाता क्या है।

न जाने कितने शहरों को नफरतों से जलाया है,
मिला कर ख़ाक में सब कुछ, यूँ आँशु बहाता क्या है,

बंधा है आज हर कोई तेरे झूठे रिवाज़ों में,
भुला कर इंशानियत, तू इंशानियत सिखाता क्या है।

शुकुं मिलता है तुझको तो मातम के शन्नाटों में,
खुदी देता है दर्द फिर यूँ हमदर्दी दिखाता क्या है।


तारीख: 30.06.2017                                    विजय यादव









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