परमाणु की क़सम

“परमाणु की क़सम” एक प्रतीकात्मक कविता है जो सृष्टि के सबसे सूक्ष्म स्तर — परमाणु — से जीवन के सबसे विराट अर्थों तक की यात्रा को रेखांकित करती है। यह कविता इस विचार को रचनात्मक रूप से उजागर करती है कि ब्रह्मांड की समस्त संरचना छोटे-छोटे, मौन किंतु अडिग बंधनों पर टिकी है। जैसे परमाणु के भीतर नाभिक और इलेक्ट्रॉन की निष्ठावान परिक्रमा है, वैसे ही हमारे रिश्ते, समाज और जीवन की नींव भी मौन विश्वासों, अनकही क़समों और अटूट आस्थाओं पर खड़ी है।
 

एक छोटी-सी क़सम,
न दस्तावेज़ों पर दर्ज,
न ज़ुबान से कही गई —
बस निभाई जाती है,
हर क्षण, हर कण।


इलेक्ट्रॉन की परिक्रमा में
जो लय है, विश्वास है,
वही तो है आधार
इस समूचे ब्रह्मांड का।


नाभिक के चारों ओर
घूमता है वह बिना थके,
एक ख़ामोश वादा निभाता,
जो कभी नहीं टूटता।
परमाणु मिलते हैं,
अणु बनते हैं —
हाथ थामकर, जुड़कर,
रचते हैं एक नई सृष्टि,
नवजीवन की रचना।


इन अदृश्य बंधनों से
बनी हैं दीवारें, छतें,
नदी की धार,
और हमारी साँसों की लय।
इन्हीं क़समों से बना है
तुम्हारा मेरा "हम",
बचपन की कसमों से लेकर
प्रेम की गहराइयों तक।


इनमें छिपी हैं कहानियाँ,
जिन्हें कभी सुनाया नहीं जाता,
पर महसूस किया जाता है —
हर रिश्ते, हर छुअन,
हर विश्वास में।

ये क़सम न टूटे,
तो दुनिया चलती रहेगी,
ये बंधन न टूटे,
तो जीवन बहता रहेगा।

एक छोटी सी क़सम,
पर कितनी गहरी,
कितनी मज़बूत,
कितनी सच्ची...
परमाणु की क़सम,
जीवन की नींव।
ब्रह्मांड की धुरी।


तारीख: 16.05.2025                                    मुसाफ़िर




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