राजस्थानी तपते धोरों में, ज्यों बीच समन्दर चिंगारी
खिलजी की आंखो का कांटा, रजपूती राणा मेवाङी
सदी चौदहवीं, नाम रतन सिंह,रावल भी था नाम पङा
गढ चित्तौड़, कुल सिसौदिया, था रतना महावीर बङा
सुदूर किनारे सिंहल द्वीप, इक राजकुमारी रहती थी
दुनिया मुझको याद करेगी, हरिमन सूग्गे से कहती थी
गंधर्वसेन और चम्पावती ने, उसको नाजों से पाला था
सुंदरता ने खुद को जैसे पद्मावती के रूप में ढाला था
गंधर्वसेन ने रचा स्वयंवर, पद्मा का ब्याह रचाने को
दूर दूर से राजा आये, उसे ब्याहता अपनी बनाने को
हुई घोषणा और तभी फिर पद्मावती सभा बीच आई
उस के रुप का वर्णन, क्या लिख सकती है कविताई
नूपुर, कंकण, बिंदीया, चोली
नथनी, कंगन, बिछुवा संग रोली
ढली शाम सा, बहके था अंजन
जरा लचक पर, थमता मधुबन
कर्णफूल महावर, मेहंदी डाली
लाल करधनी, अधरों पर लाली
कपोलों पर कटाक्ष करे था तिल
भँवर प्रत्यंचा, थी अति कातिल
श्वेतांग चूमती मूतियन की माला
सिर केश ढांपती, श्यामल शाला
स्वर्ण कमल सों, दमकत कूंडल
था रुप मोहिनी, ज्यूँ विष्णु मंडल
देख पद्मिनी रुप सलोना, कुछ मूर्छा से स्वयंवर कर बैठे
कुछ रुप की गंगा ऐसे डूबे, रतिनाथ के हाथों मर बैठे
घोर स्पर्धा, अंतिम पल तक, रावल और मलखान डटे
रावल ने पद्मा जीत लेयी और चित्तौड़गढ़ के भाग जगे
राणा रावल के दरबार में, इक राघव चेतन फनकार था
करता था वो जादूगरी, लोग समझते कि संगीतकार था
पाप की गठङी कब तक ढोता,इक दिन उपसंहार हुआ
रावल ने दिया निकाल उसे, वो खिलजी के दरबार गया
माटी का कर्ज भी भूल गया, हुआ कलकिंत तू चेतन
आक्रांता से जाकर उसने, पद्मा का रुप किया वर्णन
पुष्पाभूषित, कोमलांगना, करुणामयी है रुप चौदस
धैर्य, प्रेम,त्याग की मूर्ति, ललाट तिलक सुरंग षोडश
केसर रंगित, सौंदर्य जननी,स्वपरिपूर्णा,कारुण्यवती
अतिगर्वित, शक्तिस्वरुपा, महावीरांगना लावण्यवती
तिरछी भौंहें, अनुपम यौवन, शोभित कांति, दीप्तित सज्जा
कामिनियों सी है यूँ चंचल, ज्यों कामदेव के संग हो लज्जा
सून पद्मा के रुप की चर्चा,खिलजी की सांसें उखङ गई
हरम में अपने लाने की,थी वहश म्लेच्छ को जकङ गई
बस सेना अपनी तैयार करी, चित्तौड़ को प्रस्थान किया
राजपुताना को बिन जाने, खिलजी ने था संधान किया
लाखों सैनिक तम रुप लिये, चित्तौड़ घेर कर हर्षित थे
युद्ध बेला आई जानकर, मेवाङी भी अति पुलकित थे
डाल के घेरा खिलजी बैठा, नहीं पार दिखाई दिया उसे
फिर पापमयी और छद्म युद्ध ही राह दिखाई दिया उसे
उस पापी ने भेजा संदेशा, नितांत अकेला मैं आऊंगा
बस एक झलक पद्मा जो दे दे, वापस लौट मैं जाऊंगा
दिया युद्ध का आमंत्रण, राणा ने प्रस्ताव इन्कार किया
युद्ध रोकने को पद्मा ने, जल प्रतिबिम्ब स्वीकार किया
नियत समय को खिलजी आया, संग में थे सेनानायक
थे रावल जी गलती कर बैठे, वो था नहीं भरोसे लायक
खिलजी के जो हाथ जूङे तो, राणा समझे थे अपनापन
पर वे देख नहीं पाये, ताङ रहा था, गढरक्षा के संसाधन
जल प्रतिबिंबित हुई पद्मिनी, खिलजी का तो होश गया
देख बिम्ब में लौट पङूंगा, जो धरा था वो संतोष गया
दरवाजे तक पहुंचाने को, जब रावल आये थे दर तक
गिरगिट अब रुप में आया, रखी कटार राणा के मस्तक
राणा जी को करके बंदी, अब संदेश दूत उसका लाया
राणा पाये जीवनदान, जो पद्मा को उस तक पहूंचाया
चित्तौड़ हो गया भौंचक्का,उपवन था शमशान जा लगा
वादाशिकनी का छोङो, कातिल हाथों सम्मान जा लगा
अंबर उस दिन रोता था, चहूं और बिछा था अंधियारा
फिर शेषनाग ने करवट ली, बन उठी पद्मिनी अंगारा
था युद्धसभा का आयोजन, खुद पद्मा ताज विराजे थी
आंखो से लोहू टपके था, रजनी भी थर थर कांपे थी
सरताज हुआ था बंदी, गढ़ के चहूं और घनेरे पहरे थे
वक़्त था अनुपम, देव तलक पद्मा को सुनने ठहरे थे
थी अतिविकट घड़ी,फिर भी हर और दमकते चेहरे थे
आन पर मिटने को तैयार,मेवाङी रजपूते वीर घनेरे थे
तिमिर को राह दिखलाने को, मिथ्याभिमान गिराने को
देवारिदर्प मिटाने को, सकुशल रावल को ले आने को
अग्नि अनल का रुप लिये, जालौरी गरुङ दहाड़ पङे
हाथों में शमसीर चमक उठी, गौरा बादल चिंघाड़ पङे
खिलजी को पहुंचा पैगाम, रानी ने जिद को तोङ दिया
कल से रानी तेरी होगी, गर रावल को तूनें छोङ दिया
रावल से हो मिलन अंतिम, पद्मा लेना विदाई चाहती है
आएंगी सातसौ सखियाँ संग, जो रानी सेवा में रहती हैं
खिलजी पागल हो उट्ठा, हर शर्त तुरन्त स्वीकार लिया
गोरा बन कर रानी बैठा, संग रजपूते कुछ हजार लिया
पालकी रावल को पहुंची, गोरा ने उन्हें आजाद किया
खिलजी सेना को लगा काटने, महादेव सिंहनाद किया
बारह साल का बादल वो, घटाओं पर भारी पङता था
यम रुप लिये वो कूद कूद, यमनों की छाती चढता था
स्वयं काल उस दिन जो देखा, वो सब दृश्य विहंगम था
चपल चंचला मलेच्छ काटती, शमसीरे-गोरा अनुपम था
उस रोज की गाथा कौन लिखे, जो गोरा बादल नाचे थे
सिंह भवानी जाग पङी, रणचंडी मुख शोणित लागे थे
उस रात इंद्र ने अपने संग दो सिंहासन और थे लगवाये
रावल तो गढ को लौट गये, गोरा बादल लौट नहीं पाये
खिलजी यूं चिल्लाय रहा, ज्यों बिन पानी बादल गरजें
राजपूत भी बाट जोहते, निकलें लेकर शमसीरें घर से
अब खिलजी ने आपूर्ति रोकी, गढ पर घेरा डाल दिया
भूखे मरते बच्चे देखे, गिद्धों ने गढ पर डेरा डाल दिया
अगस्त महिना आय गया, रावल यम ललकार के निकले
राजपूतों ने केसरिया पहना, कालदरप को मारके निकले
सिंहों के जाये थे सारे, सब मेवाङी वे चिंघाड़ के निकले
धरा कांपती, अम्बर कांपे, रजपूते वे दहाङ के निकले
इक इक रजपूता, लाख पे टूटा, राई आगे पहाड़ था टूटा
चिङियों ने गिद्धों को झपटा,जब तक खुद जीवन ना छूटा
गढ के भीतर चिता लगी थी, उसके ऊपर आग सजी थी
मौत से बाहर रावल ब्याहा, पद्मा भी खुब आज सजी थी
जौहर की अग्नि हो गई पावन, 16000 क्षत्राणी मिटी थीं
देवलोक था धन्य हो गया, उन्हें भी नयी इंद्राणी मिली थीं
और वो पागल खिलजी…… जीते जी तो क्या, मरी पद्मिनी की भी परछाई भी न छू पाया……..