कहने को तो अपनों की भीड़ है,
पर दर्द कोई नहीं समझ रहा है।
सब अपनों की मुश्किलों से परेशान हैं,
सबको अपना ही ग़म है, सबको अपना ही अभिमान है।
कौन सुने मेरा फ़साना...
अब हम भी छुपा लेते हैं दिल का शोर,
ख़ामोशियों के साये में।
सजा लेते हैं मुस्कराहट अपने लबों पर,
ज़ख़्म अब अपने किसी को दिखाते नहीं।
ख़ैरियत बता देते हैं हम सभी को,
जब कोई पूछता है हाल हमारा तो...
ख़ुद को ख़ुद ही से समझा लेते हैं,
किसी से अब कुछ कहते नहीं।
हम निकले हैं मनाने अपनी क़िस्मत को,
जो मुझसे न जाने कब से रूठी हुई है।
ख़ुद को आज़मा रहे हैं, ग़म को समेटे अपने मन में,
सच कहती हूँ यार पर ,
ख़ुद से ख़ुद को छिपाना बड़ा मुश्किल है।
ज़िन्दगी तो गुज़र ही रही है, ज़िन्दगी की भाग-दौड़ में,
मगर जब एकांत में ख़ुद का ख़ुद से सामना होता है,
आँखों में आँसू तो नहीं आते,
पर मन का दर्द तोड़ देता है।