सुरमई साये


यह कविता साँझ के धुंधलके में छिपी स्मृतियों, संवेदनाओं और आत्म-अन्वेषण की सिहरन को सुरमई प्रतीकों के माध्यम से उकेरती है। यह वह क्षण है जब रात और दिन की सीमाएँ धुंधला जाती हैं, और हमारी दबी भावनाएँ सायों की तरह सामने आ खड़ी होती हैं।

 


साँझ की वह साँस,
जो रंगती है आसमान को थोड़ा धूसर,
धुँधले फ़ानूस-से झिलमिलाते हैं घरों के कोने,
और सड़कों पर उतर आता है
एक सुरमई जादू।


इन सुरमई सायों में,
शहर अपने ही अक्स से अजनबी हो जाता है,
इमारतों की ऊँचाइयों पर
धूल-जमी यादें थिरकती हैं,
मानो कोई पेंसिल स्केच फ़्रेम से बाहर निकल आया हो।


किसी ने काँच की खिड़की से
एक खोया हुआ ख़त आसमान में उछाल दिया,
उस पर छपी इबारतें
अलकों के भँवर में घुलती जाती हैं—
शब्द हो जाते हैं सिर्फ़ स्वर,
और सुरमई साये,
उन स्वरों के साथ बहने लगते हैं।


बिजली के तारों पर
कौओं की सिल्हुएट्स—
अँधेरे और उजाले के बीच
लटकी हुई चीख़ जैसी लगती हैं,
फिर कहीं दूर
एक बुझे रोशनदान के भीतर
हल्का-सा दीया चमकता है—
अपनी लय में सिहरता,
सुरमई सायों को स्पर्श करता।


इसी लय में
गली के अंतिम मोड़ पर
कोई बूढ़ा बांसुरी बजाता है—
उसकी तान इतनी धीमी,
कि बस सायों के कानों तक पहुँचती है।


शहर को इसकी ख़बर नहीं,
पर सुरमई साये
उस धुन पर थिरकते हैं,
कभी दीवारों से लिपट जाते हैं,
कभी हवा को थामकर
उसे रूह बना देते हैं।


वक़्त का यह पल,
बिल्कुल दायरे के किनारे पर खड़ा—
न दिन का, न रात का,
बस एक अनगढ़ संधि,
जिसमें स्याही जैसी सूरतें
सबकुछ फिर से गढ़ रही हैं,
निश्चित आकार से परे,
एक ढलती शाम की तूलिका
जो दुनिया को धूसर रंग में रंगती चली जाती है।
 


तारीख: 16.05.2025                                    मुसाफ़िर




रचना शेयर करिये :




नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है