एक झुके हुए पौधे को जब ,
घर के भीतर जड़ित किया !
खिल उठा चेहरा , चमक उठी पत्तियां,
जब उसने पानी था पिया !
रोज उसे साहस दिखलाता,
तू भी वट बन सकता है !
वो अन्तरउन्माद से भर उठता,
जब जब उसको स्पर्श किया !
उस झुके हुए पौधे को तत्पर,
मैंने उसका अभिमान दिया !
उन्मुक्त था वो, बढ़ने में मगन,
पीछे से मैने सहारा था दिया !
जो कभी निरीह , सहमा सा था,
उसको मैने प्रबल था किया !
सोचा बढ़कर मेरा होगा,
प्रांगड़ मेरा महकाएगा
छाँव तले अपनी जुल्फों के
मुझपर भी प्यार दिखाएगा
जब आया समय ,मेरी उम्मीदों का,
उसने कुछ दिन ऐसा ही किया !
शीतलता फैला दी जीवन मे मेरे,
गम गमाहट का आगाज़ भी किया !
पर भूल गए थे शायद तुम,
एक पौधा वृक्ष तो बनता है !
तू कितना स्नेह जता ले,
प्रांगड़ में लगाया था न ?
ये तेरी दीवालों पर ही तनता है !
जब उस वृक्ष के अंदर 'मैं' आता है ,
तेरी ही नींव को खनता है !
खुद को विशालकाय समझकर
तेरी ही दीवारे चुनता है !
खून पसीने की मेहनत से,
जिस वृक्ष को तूने आबाद किया,
तेरी नींव में जड़े भेदकर
उसने ही बर्बाद किया !
'वृक्ष' गया हूँ बन अब मैं ,
इसलिए स्नेह है मुझसे
ऐसी गाथा गा गाकर ,
मेरी सारी कवायदें भुला दिया !
मेरे अपने उस 'पौधे' ने देखो ,
मुझको ही क्षण में रुला दिया !
पड़ चुकी दरारें हैं दीवारों पर,
पर जड़ अब भी काट नही सकता !
क्या करूँ ! इस वट को सींचा था मैंने,
यूँ टुकड़ो में बांट नही सकता !
अब गिरनी है तो गिरने दो ,
दूजा घर अपना लेंगे !
अब पहले से खड़े वृक्ष को ही,
घर के अंदर करवा लेंगे !