डोर बैल को कान तरसते,
दर्शन को ये नैना,
हर आहट एक आशा देती,
हो चाहे दिन या रैना,
मुंडेर पर घर की हे कागा,
तुम कांव कांव कब गाओगे,
राह निहारत अंखिया दूखी,
अतिथि, तुम कब आओगे।
जब से कोविड काल हैं आया,
अपना हर एक हुआ पराया,
आकाल पड़ा हैं मेहमानों का,
कबसे अच्छा भोज न खाया,
मेरे घर में हो फिर से महफ़िल,
वो शुभ दिन कब लाओगे,
अतिथि ,तुम कब आओगे।
अब ना पूछूँगा कितने दिन ,
रहोगे और कब जाओगे,
अब ना फुस फुस बातें होंगी,
ना ही तुम पछताओगे,
ये घर तुम।बिन रहा अधूरा,
कब पूरा कर जाओगे,
अतिथि तुम कब आओगे।