मैं कोई योद्धा नहीं ,
जो तुम मुझसे लड़ोगे ।
न ही मैं तुम्हारे
भौतिक युद्ध में शामिल हूँ ।
मेरे शत्रु तो
खुद मेरे अंदर हैं ,
और न जाने मैं कबसे
उन्हें जीतने की कोशिश कर रहा हूँ ।
मेरे अहं का पर्वत ही इतना ऊँचा है
जिसपर चढ़कर मुझे सारी सृष्टि
बौनी नज़र आती है ।
किससे लड़ूँ मैं वहाँ
जहाँ कोई और नहीं है ।
तुम व्यर्थ में
मेरी भौतिकता से डर रहे हो,
क्योंकि मेरे अन्तर में
जो युद्ध चल रहा है
वो अपने भौतिक रूप से
कहीं अधिक उग्र है ।
तुम्हें तो मेरी शिथिलता से भय है ,
क्योंकि जिस दिन,
मेरे दुर्जय संग्राम का अंत होगा,
मैं तुम्हारे मध्य होऊंगा,
और उस दिन होगा
मेरे भौतिक संग्राम का उदय,
क्योंकि मैं रुकूँगा नहीं
तुम्हारे लिए उस दिन ।
मैं बढ़ चलूँगा उस लक्ष्य की ओर
जिसे देखा था मैंने
कभी ऊंचाई से,
और जो तुम्हारी दृष्टि से
सदा परे थी ।