आदमी का दंगाई हो जाना!

मुबारक!
हम सबको
कि हमने चुन लिए हैं रास्ते
अपनी सहूलियतों के अनुसार,  
मुबारक!
कि अपनी प्रगति को
परिभाषित किया है हमने
अपनी जरूरतों के हिसाब से,
मुबारक,
कि उठा लिए हैं हमने
पत्थर-चाकू-खंजर-तलवारें;
रचने को
एक नए सलीके का देश,
मुबारक,
कि हो गए हैं हम सब शिकार
सियासी बिसातों के।

बधाई!हम सबको
कि अपने बुलंद नारों की
आवाज़ से
दबा दिए हैं हमने-
कई मासूम चीत्कारें।
बधाई,कि पाट दिया है हमने
आसमान के नीलेपन को
काले धुएं के गुबार से;
और बिखरा दी हैं सड़कों पर
वो तमाम चीजें-
जो हमारे भीतर बचेे
रत्ती भर आदमी को भी
मरता साबित कर सके।

शाबाशी!
कि तोड़ दी है हमने
अपने ईष्ट की बनाई,आज
सारी मर्यादाएँ
उन्हीं के नाम लेकर,
और बन गए हैं हम सब 'धर्म-रक्षक',
शाबाशी!
कि जलती गाड़ियों के राख-संग
उड़ रहे हैं
आदमियत के बनावटीपन,
शाबाशी!
कि उतार फेंकी हमने
आज मनुजता की खाल।
शाबाशी,
फिर एक बार
जो पथरा दी है हमने 
दीवार पर लगी तस्वीरों में
'बापू' की आँखें,
 शाबाशी,
कि हो गए हैं हम
पूर्णत: दंगाई।

बहरहाल जब
ख़ून के छींटें,
चिल्लाती औरत
और बिलखता बाप
हमारी रूह को देने लगे सुकूँ;
तो समझ लेना,
अवश्यंभावी है सूत्रपात-
'उत्क्रांति' के नूतन अध्याय का
जो हमें पुनः
जंगलों-पर्वतों-गुफाओं
और कंदराओं के पार;
ले जाएगा
'पशुता' के नए शिखर तक ।।


तारीख: 24.02.2024                                    अंकित









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