अदब से आईने ने कहा

आब-ए-आईना सब ने देखि
पर अपनी अस्क़ाम न देखा
आदमियत रही कहाँ बता तो
आईने ने हमसे आज पूछा ?

आईने मे चमकता सूरत तेरा
क़ल्ब क्या  कल से मुक्त है
सुना प्रश्न आईने का जब मै तो
ख़जालत से सर झुक गया ।

कांच का मै जरूर हूँ पर
नही नियत से मजबूर हूँ
सब के साथ एक सा भाव
सच दिखलाता न भेदभाव ।

एक आईना तुम्हारे भीतर भी
झांक कर जरा तुम देखो
अदब से आईने ने कहा मुझे
अंदर से भी तो साफ दिखो ।
 


तारीख: 14.04.2024                                    कृष्ण कुमार महतो






रचना शेयर करिये :




नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है