आब-ए-आईना सब ने देखि
पर अपनी अस्क़ाम न देखा
आदमियत रही कहाँ बता तो
आईने ने हमसे आज पूछा ?
आईने मे चमकता सूरत तेरा
क़ल्ब क्या कल से मुक्त है
सुना प्रश्न आईने का जब मै तो
ख़जालत से सर झुक गया ।
कांच का मै जरूर हूँ पर
नही नियत से मजबूर हूँ
सब के साथ एक सा भाव
सच दिखलाता न भेदभाव ।
एक आईना तुम्हारे भीतर भी
झांक कर जरा तुम देखो
अदब से आईने ने कहा मुझे
अंदर से भी तो साफ दिखो ।