बड़ी बेचैनी सी फैली है तेरे फिज़ा में ,
सन्नाटों में अजब सी सुगबुगाहट है
सब चल रहे हैं मगर ऎ सहर
राह में न जाने कैसी रूकावट है |
बड़ा ग़मगीन मिजाज है ऎ तेरा सहर ,
सूरमाओं को धूल चटा गीदड़ो को सेहरा पहना रखा है ।
जिनके हाथ देश की कमान होनी चाहिए थी
मजबूर कर उनको दहशत का मददगार बना रखा है ॥
कलम के मुख पे कालिख पोत ,
सजावटो से सितम ढाह रहे तेरे सहरी ॥
सीमाओ के बटावरो का, बंदरबाट कर ,
हाथ में धर्मधव्ज लिए, सीमा लाँघ रहे तेरे सहरी ॥
सदियों पुरानी मुद्दो के जज़्बात पे ,
पार पायी थी हमने रह के यूं साथ में ॥
चाबुक चलाते है बिना किसी छाप के
मरने मारने पे उतारू है सहर बिना किसी बात के ॥
इतनी बेइंतिहा बर्बरता देख तू मूक कैसे है ।
बेबसी से कराहती छंद सुन, तू चुप कैसे है ॥
जवाब न देना ,जवाबदेही का नया अंदाज है ।
जुल्म को सहना ही इस सहर का मिजाज है ॥