अज़नबी हूँ 


दिल का कहा हो सके पूरा, भला कौन मानता हैं
अज़नबी हूँ इस शहर में मुझे कौन जानता हैं
यूं तो यहीं अहले जिंदगी गुज़ार दी मैंने
रोज़ी रोटी की उम्मीद में सहे घाव भी पैंने
ठोकरें दर ठोकरें मिलती, गिरते को कौन संभालता है।
तभी तो मेरा दर्द से और दर्द का मुझ से मुखालता है।
मुसीबतें भी दबे पांव क़िस्मत में दबिश देती हैं।।
बिखरतें ख्वाब आख़री सांसे ख्वाहिशे लेती है।
दौलत के यार सभी, मुफ़लिसी में कौन पहचानता हैं।
होगा मुकंमिल जमीं आसमां ये भरम कौन पालता हैं।
प्यार वफ़ा और कस्मे वादें, हैं ये हर्फ़ बड़े अधूरे से।
दिल को समझाया मैंने, बता है किसके सपने पूरे से।
दिल का कहा हो सके पूरा, भला कौन मानता हैं
अज़नबी हूँ इस शहर में मुझे कौन जानता हैं


तारीख: 16.11.2019                                    नीरज सक्सेना









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