घनघोर काली रात है ,
बिछी हुई बिसात है |
मनुष्य ही मनुष्यता का ,
रच रहा विनाश है |
अनेक काले साए हैं ,
लूट और खसोट के |
मौत की दहशत से ,
भर गया है पाप का घड़ा |
इक किरण उजली सी ,
ये सन्देश देती है |
अब घड़ा पाप का ,
फूटने ही वाला है |
जुर्म कत्लेआम का ,
निशान मिटने वाला है
है सवेरा होने को ,
बिखरने न देना तुम अपनी उम्मीदों को |
खोई हुई आशा को ,
फिर से ढूँढ लाओ |
है धरा की ओर से ,
उस क्षितिज के छोर तक,
जीत तुम्हारी लिखी जीत तुम्हारी ||