औरत की अपनी कोई प्रकृति है
या, ये प्रकृति स्वयं ही कोई औरत है
ये दो बातें एक ही बात हैं
या, ये बात वास्तव में दो बात है…..
सागर सी अनन्त गहराईयां इसमें
पर्वतों सी असीम ऊंचाईयां इसमें
रेत सा सबकुछ समेटने की कला
बर्फीली चोटियों सी सर्द हवा इसमें
उगते सूरज की शीतलता
सितारे हैं झिलमिल रवां इसमें
चंद्रमा की तरह सोलह कलाओं की ज्ञाता
तो निशब्द निशा का अंधियारा इसमें
शांति को समेटती है,
दूर दूर तक फैले मनमोहक घास के मैदानों सा
समर्पण को देती है विस्तार
शीतल हवाओं में फैलती खुशबु सा
प्रेम में हो उठती है स्पंदित
बौराये भ्रमर के भ्रमरगान सी
सेवा में जान पड़ती है वसुधा के समकक्ष
और, जब करने पर आती है उजाङ
तो बंजर खेत भी इसका एक प्रतिरूप
प्रकृति, चट्टानों के मिट्टी बनने का पैगाम
औरत, नाजुक मिट्टी की बनी मजबूत चट्टान
जब कभी भी रो भी देती है औरत
तो, कभी सुरमाओं को भी डूबो देती है औरत
कभी मां, बहन, पत्नी, दोस्त बन
पेङ, पुष्प, नदिया व हवा की तरह संभालती है
और कभी जो पङे जरुरत
तो, भूकम्प, जलजला, अंधङ भी हो उठती है
प्रकृति नहीं तो और क्या हैं, ये दोनों भेद
सरिता बन जल भी देना और जलप्रलय का भी संवेद
ये प्रकृति समेटे है खाई और पहाड़
औरत की प्रकृति में भी हैं अनेक उतार-चढाव
रो सकती है बारिशों की तरह
खो सकती है बीहङों की तरह
खिलखिलाती है सुबह की मानिन्द
गुनगुनाती है पंछियों की तरह
साथी बने तो, बाती बन कर जल उठे
साथ छोङे तो वक्त सी कठोर हो उठे
किसी को चाहने की प्रकृति, प्रकृति की तरह
और
किसी को उजाङने की प्रकृति भी प्रकृति की तरह
जितना समझता हूं,
उतना ही उलझता हूं……..
कि
औरत की अपनी कोई प्रकृति है
या, ये प्रकृति स्वयं ही कोई औरत है
ये दो बातें एक ही बात हैं
या, ये बात वास्तव में दो बात है…..